ये रुके रुके से आँसू ये दबी दबी सी आहें,
यूँही कब तलक ख़ुदाया ग़म-ए-ज़िंदगी निबाहें।
कहीं ज़ुल्मतों में घिर कर है तलाश-ए-दश्त-ए-रहबर,
कहीं जगमगा उठी हैं मिरे नक़्श-ए-पा से राहें।
तिरे ख़ानुमाँ-ख़राबों का चमन कोई न सहरा,
ये जहाँ भी बैठ जाएँ वहीं इन की बारगाहें।
कभी जादा-ए-तलब से जो फिरा हूँ दिल-शिकस्ता,
तिरी आरज़ू ने हँस कर वहीं डाल दी हैं बाँहें।
मिरे अहद में नहीं है ये निशान-ए-सरबुलंदी,
ये रंगे हुए अमामे ये झुकी झुकी कुलाहें।
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