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ये हरे वृक्ष (कविता) Editior's Choice

ये हरे वृक्ष
यह नई लता
खुलती कोंपल
यह बंद फलों की कलियाँ सब
खुलने को, खिलने को, झुकने को होतीं
स्वयं धरा पर।

धूल उड़ रही,
धूल बढ़ रही,
जबरन रोकेगी यह राह
अपनी धाक जमा कर
ज़ोर जमा कर आँधी।

तोड़ रही कुछ हरे वृक्ष
सब नई लता—
ये परवश हैं
इस धरती की बात रही यह
कहीं उगा दे
ऊँचे पर, नीचे पर, पत्थर पर
पानी में।

ये उपकारी हरे वृक्ष
यह नई लता
खुलती कोंपल
खुलने पर, खिलने पर, पकने पर
झुक जाएँगी स्वयं धरा पर
फिर से उगने को कल
नए रूप में।


रचनाकार : शकुन्त माथुर
            

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