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विजय के गान (कविता) Editior's Choice

तुम महाप्राण संगठन शक्ति
तुम जग जीवन की अभिव्यक्ति
तुम कर्म-निष्ठ
तुम ध्येय-निष्ठ
तुम धैर्य-निष्ठ

तुम प्रति पग-ध्वनि पर नव जीवन का गर्जन
तुम प्रति ललकारों में अभिनव भव-सर्जन
तुम हो—बड़े धुन तत्पर
फहरा रक्त ध्वज अंबर
मैं गान विजय के गाऊँ
जन-जन की शक्ति जगाऊँ

तुम बढ़ो जिस तरह दीप्त ज्वाल
कर दुग्ध रूढ़ि का अंतराल॥
साम्राज्यवाद
सामंतवाद
औ व्यक्तिवाद

जो बाँध रहे गति जीवन की कर उन्हें नष्ट
तुम सामाजिक स्वातंत्र्य साम्य को करो स्पष्ट
होवे स्वतंत्र नारी-नर
हो सामंजस्य अमलतर
मैं गान विजय के गाऊँ
जन-जन की शक्ति जगाऊँ

तुम करो नष्ट सब भेद-भाव
तुम हरो निखिल जग के अभाव
सब बाधा कर
हो कर तत्पर
नव साहस भर

तुम विजयी बन कर अपना नियमन आप करो
जीवन की संचित व्याकुलता सब ताप हरी
जग-जीवन तुम पर निर्भर
तुम अपने बल पर निर्भर
मैं गान विजय के गाऊँ
जन-जन की शक्ति जगाऊँ


रचनाकार : त्रिलोचन
            

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