रे मानव! तू अविरल चलता जा,
रे मानव! तू दीप सा जलता जा।
पैरों के छालों से
घबराना ना तुम कभी,
तूफ़ाँ आएँगे राहों में
डरना डराना ना तुम कभी।
रे मानव! तू ख़ुद छालों को भरता जा,
तूफ़ानों के बीच दीप तू जलाता जा।
क्या हुवा! जब निशा राहों में
गर्दिश बन घिर आएगी,
वक़्त की पहेलियाँ जब
निशाभर साथ छोड़ जाएगी।
तब निशा चीर रश्मि बन उगता जा,
रे मानव! तू अविरल चलता जा।
क्या रोक सका है कोई
उगते हुए स्वर्णिम सूरज को,
क्या पंक बिगाड़ सका है
खिलते हुए सरोवर के पंकज को।
तू रजकन है कर्मबीज पथ में बोता जा,
माटी में मिलकर भी पुनः खिलता जा।
रे मानव!...
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