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सुबह (कविता) Editior's Choice

यह एक सुबह है
दूसरी सुबहों की तरह

आँख खुलती है
नज़र आती हैं कूड़े पर भिनभिनाती मक्खियाँ
रसोई में बिखरे झूठे बरतन
पलस्तर झरती दीवारें
मैले-कुचैले कपड़े

मैं सोचता हूँ
रात कितनी सहृदय है
ढाँप लेती है हमारी गंदगी
हमारी विवशताएँ
एकदम माँ की तरह

इस सुबह मैं
याद करता हूँ पाठ
जो मुझे दफ़्तर में दुहराना है

उतारता हूँ अभिनय
चालाक हँसी हँसने का
जो मुझे दोस्तों के बीच हँसनी है

घिसे ब्लेड से बनाता हूँ
जल्दी-जल्दी अपनी हजामत
कई जगह लग गई है
कोई बात नहीं
पत्नी बढ़ाती है अपने अधर
मुझे फ़ुरसत नहीं है

छूट जाएगी मेरी दफ़्तर की बस


रचनाकार : विनोद दास
            

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