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श्राद्ध का भोजन (कविता)

कौआ बनकर मैं तुम्हारे
घर की मुँडेर पर नहीं आऊँगा,
अपने और पुरखों का सिर
मैं झुकाने अब नहीं आऊँगा।
मेरी ही कमाई से तुम
ऐश करते आ रहे हो,
श्राद्ध के नाम पर
सिर्फ़ नाटक कर रहे हो
सिर्फ़ दुनिया को दिखा रहे हो।
जीते जी तुमनें मुझे बेकार समझा
मरने से पहले ही तुमनें मार डाला,
मेरी दर्द पीड़ा को भी
नज़रअंदाज़ तुम करते रहे,
प्यास से जब कभी हलकान होता
एक घूँट पानी भी मुँह में नहीं डाला।
आज जब मैं नहीं हूँ तब
तुम क्यों ढोंग कर रहे हो?
ख़ुद की नज़रों में शायद गिर रहे हो
या समाज को लायक पुत्र होने का
आवरण ओढ़कर दिखा रहे हो।
पर ये सब अब बेकार है मेरे लाल
तुम्हारे मगरमच्छी आँसुओ का
क्यों करूँ मैं ख़्याल?
तुम्हारी माँ के आँसू
मुझे बेचैन कर रहे हैं,
तुम जैसे स्वार्थी बेटे के भरोसे
छोड़कर आने के लिए
मेरी आत्मा को कचोट रहे हैं,
हर पल आत्मा का सुकून छीन रहे हैं।
तुम्हारी माँ हर पल मुझे झँझोड़ती है,
अपने पास बुलाने की
ज़िद कर रही है।
अब तुम्हीं बताओ मैं क्यों आऊँ?
तुम्हारे श्राद्ध का फेंका भोजन
आख़िर क्यों खाऊँ?
माँ से भी छुटकारा पाने की
तुम्हारी चाहत मैं भूल जाऊँ?
इससे अच्छा है अपनी पत्नी को भी
अपने पास ही बुलवा लूँ,
सदा के लिए ही तुम्हारी उलझन
क्यों न ख़त्म करवाऊँ?


लेखन तिथि : 20 सितम्बर, 2021
            

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