देशभक्ति / सुविचार / प्रेम / प्रेरक / माँ / स्त्री / जीवन

शरणार्थी (कविता) Editior's Choice

रात-दिन, बारिश, नमी, गर्मी
सबेरा-साँझ
सूरज-चाँद-तारे
अजनबी-सब
हम पड़े हैं आँख मूँदे, कान खोले।
मृत्यु-पंखों की विकट आवाज़ सुन कर
कौन बोले?
इसलिए सब मौन हैं।
ये हमारी आँख के परदे लदे हैं।
रुंड-मुंडों के भयानक चित्र से।

चीख़ और पुकार, हाहाकार
बेघर-बार जन-जन के रुदन के स्वर भरे हैं कान में।
धूम के बादल, लपट की बिजलियाँ घिर रही हैं प्राण में।
कौन जाने यह हुआ क्या?
और क्या होना अभी है?
सब तरफ़ विध्वंस की बर्छी उठी है
लक्ष्य जिसका है हमारी ज़िंदगी की चाह।

आज हमको है मिला क्या ज्ञान का पहला उजाला?
या बुझे ये दीप तन के?
और हम सब मर, नरक-वासी हुए।
ये सभी हैं चित्र उसके ही कि जि का दृश्य था
आँका हुआ इस भाग्य-पत्थर पर हमारे।
दूर तक तंबू तने हैं।
खेलते बाहर
कटे कर-नाक, टूटी टाँगे वाले
दीन बच्चे, बाँध उजली पट्टियाँ
हम पड़े हैं तंबुओं में
गिन रहे हैं कल्पना के फूल की पँखुरी।
ख़ून में भीगे हुए परिधान अपने
खा रहे हैं धूप उस मैदान में।

याद आता घर
गली, चौपाल, कुत्ते, मेमने, मुर्ग़े, कबूतर
नीम-तरु पर
सूख कर लटकी हुई कड़वी तुरई की बेल।
टूटा चौंतरा
उखड़े ईंट-पत्थर।
बेधुली पोशाक पहने गाँव के भगवान
मंदिर।
मूर्ति बन कर याद की
घर लौटने की लालसा मन में जगाते।
गिर रही चारों तरफ़ हमदर्दियों की फुलझड़ी।
पूछता प्रत्येक जन
निर्लज्जता की वह कहानी
जो हमारे वास्ते हो गई फुड़िया पुरानी
दर्द से भरपूर।
युद्ध की वार्ता सदा होती मनोहर
पर हमें भी चाहिए अब पेट भर कर अन्न।
शक्ति को उत्पन्न करने के लिए औज़ार
कंटकों को काटने के वास्ते हथियार।
ओ दया के दूत हम को दो फ़क़त दो-चार गेंती औ’ कुदाली।
हम हमारी इस नई, माँ-सी धरा के वक्ष में से
खोद कच्ची धातु अपने श्रेय के सिक्के बना लें।
इस नए आकाश जल औ’ वायु के आधार पर
फिर से सृजन के बीज डालें।
सुख-संगीत की लहरें बहा लें।
दो हमें विश्वास अपने बाहुबल का
हम तभी आगे बढ़ा हैवानियत की राख को
सात सागर पार डालें
हम हमेशा बंदियों के वस्त्र-सी शरण की
‘याचना सज्जा’ पहन
जीते नहीं रह पाएँगे।


            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें