मृत्युंजय, इस घट में अपना
कालकूट भर दे तू आज;
ओ मंगलमय, पूर्ण, सदाशिव,
रुद्र-रूप धर ले तू आज!
चिर-निद्रित भी जाग उठें हम,
कर दे तू ऐसी हुंकार;
मदमत्तों का मद उतार दे
दुर्धर, तेरा दंड-प्रहार।
हम अंधे भी देख सकें कुछ,
धधका दे प्रलय-ज्वाला;
उसमें पड़कर भस्मशेष हो
है जो जड़ जर्जर निस्सार।
यह मृत-शांति असह्य हो उठी,
छिन्न इसे कर दे तू आज;
मृत्युंजय, इस घाट में अपना
कालकूट भर दे तू आज!
ओ कठोर, तेरी कठोरता
कर दे हमको कुलिश-कठोर,
विचलित कर न सके कोई भी
झंझा की दारुण झकझोर।
सिर के ऊपर के प्रहार सब
सुमन-समूह-समान झड़ें,
पैरों के नीचे के काँटे
मृदु-मृणाल-से जान पड़ें।
भय के दीप्तानल में धँसकर
उसे बुझा दें पैरों से;
छाती खोल, खुले में अड़कर
विपदाओं के साथ लड़ें।
तेरा सुदृढ़ कवच पहने हम
घूम सकें चाहे जिस ओर:
ओ कठोर, तेरी कठोरता
कर दे हमको कुलिश-कठोर।
ओ दुस्सह, तेरी दुस्सहता
सहज-सह्य हमको हो जाय;
तेरे प्रलय-घनों की धारा
निर्मल कर हमको हो जाय।
अशनि-पात में निर्घोषित हो
विजय-घोष इस जीवन का;
तड़ित्तेज में चिर ज्योतिर्मय
जो उत्थान-पतन तन का।
बंधन-जाल तोड़कर सहसा
इधर-उधर के कूलों का,
तेरी उच्छृंखल वन्या में
पागलपन हो इस मन का।
निजता की संकीर्ण क्षुद्रता
तेरे सुविपुल में खो जाय;
ओ दुस्सह, तेरी दुस्सहता
सहज-सह्य हमको हो जाय।
ओ कृतांत, हमको भी दे जा
निज कृतांतता का कुछ अंश;
नई सृष्टि के नवोल्लास में
फूट पड़े तेरा विभ्रंश।
नव-भूखंड अमृत के घट-सा
दे ऊपर की ओर उछाल,—
सागर का अंतस्थल मथकर
तेरे विप्लव का भूचाल।
जीर्णशीर्णता के दुर्गों को,
कुसंस्कार के स्तूपों को
ढा दे एक साथ ही उठकर
दुर्जय, तेरा क्रोध कराल।
कुछ भी मूल्य नहीं जीवन का
हो यदि उसके पास न ध्वंस;
ओ कृतांत, हमको भी दे जा
निज कृतांतता का कुछ अंश।
ओ भैरव, कवि की वाणी का
मृदु माधुर्य लजा दे आज;
वंशी के ओठों पर अपना
निर्मम शंख बजा दे आज!
नभ को छूकर दूर-दूर तक
गूँज उठे तेरा जय-नाद;
घर के भीतर छिपे पड़े जो
बाहर निकल पड़ें साह्लाद।
तिमिर-सिंधु में कूद, तैरकर
सुप्रभात-से उठ आवें;
निखिल संकटों के भीतर भी
पावें तेरा पुण्य-प्रसाद।
जीवन-रण के योग्य हमारा
निर्भय साज सजा दे आज,
ओ भैरव, कवि की वाणी में
निर्मम शंख बजा दे आज।
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