सारी नैतिकताओं
गरिमाओं का
भारी दुशाला ओढ़े बैठ गई है उम्र
वो सारी उच्छृंखलता कहाँ जाकर सो गई है
जब लगता था, हुआ जिस पल भी किसी से प्रेम
तुरंत कह देंगे
तब हवाओं में घुली वसंत की
महक तक से प्रेम हो जाता था
अब जब संतृप्त हैं सभी भाव
बहुत खोल कर खुल कर देख लिए सब रिश्ते
प्रेम हर जगह एक हद बाद सिर पटकता मिला
दुनियादारी की चट्टान पर
अब प्रेम शब्द पर हँसी आती तो है
याद आता है वह पागलपन
जब एक उजास की उम्मीद में प्रेमी
सौ योजन चल कर आते-जाते रहे
अब प्रेम चुक कर प्रभावित होने में घट गया है
आकर्षण सवा योजन तक चल कर कहीं नहीं पहुँचता
उम्र अपनी संख्याएँ जल्दी-जल्दी पार कर गई है
देह के स्वर्ण उजास और मन की करवटों का
अब होने लगा है ममीफिकेशन
कि तुम मर चुकी होगी एक तयशुदा उम्र जीकर
तुम्हारे बिना ढले वक्षों के बीच से निकलेगी एक सीली कविता
तुम्हारे आतप्त भावों की एक सुरीली चटक चीख़-सी
तुम-सी ही पागल फिर लिखेगी तुम्हारा जीवन
ओ प्यारी!
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