ईश्वर की अदालत में
एक नदी गिड़गिड़ा रही थी
कोई तालाब हाथ बाँधे
बैठा था उकड़ूँ
समंदर उम्मीद हारे खड़े थे
पर्वत अनमने से पसर गए थे
बावड़ियाँ ऊँघ रही थीं
एक-एक कर सभी को थी प्रतीक्षा
फ़ैसले की
निश्चित सज़ा की
उधर ईश्वर प्यास के मारे था बेहाल
कह भी नहीं पा रहा था
कोई भी उठे मेरे कंठ में बैठ जाए
मैं प्यासा नहीं मरना चाहता
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