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संदूक़ (कविता) Editior's Choice

प्रेम खोजते मैंने संदूक़ खोला। उसमें बाँसुरी मिली। स्लेट मिली।
काग़ज़ की नाव मिली। नमक की पोटली भी। नक़ली दाँत भी।
टूटा ऐनक भी। एक जोड़ी जूते भी।
इतनी चीज़ें कैसे सम्हालता जो अब तक ख़ुद ही बचती आ रही थीं। मैंने जूते पहने। ऐनक लगाई। नक़ली दाँत लगाया। नमक काँख में दबाया। स्लेट हाथ में ली। बाँसुरी होंठों पर लगा नाव में बैठ गया।

बाँसुरी में फूँक मारा तो नाव हवा में उड़ने लगी।
स्लेट पर शब्द थके हारे राख पुते से आने लगे, उन्हीं से लिखना था प्रेम।

मैंने लिखा प्रेम। वह नहीं आया।
थक हार मैं वही सो गया। तब से सो रहा हूँ।
इस उम्मीद में कि फिर कोई प्रेम की खोज में इस संदूक़ को खोलेगा।
अगर प्रेम की खोज में नहीं तो अपने इस बचे सामान की खोज में ही।
मैं तब से इस संदूक़ में हूँ।
कभी-कभी लगता है जैसे किसी ने इसे उठा नदी में बहा दिया है।
और नदी में ऐसे सैकड़ों संदूक़ हैं।
नदी भी किसी का संदूक़ है।
प्रेम की खोज में समुद्र भी संदूक़ है।
पृथ्वी भी संदूक़।
जो लोग खोज में नहीं हैं, वे प्रेम में हैं।
उन्हें डर लगता है संदूक़ से। उनका प्रेम गठरी है।
वे उसे लिए नदी में उतरते हैं तो वह मार्ग छोड़ देती है।

मित्रो!
इस पर यक़ीन न करना।


            

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