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समुद्र के किनारे (कविता) Editior's Choice

सागर लंबी साँसें भरता है,
सिर धुनती है लहर-लहर;
बूँदी-बादर में एक वही स्वर
गूँज रहा है हहर-हहर।
सागर की छाती से उठ कर
यह टकराती है कहाँ लहर?
जिस ठौर हृदय में जलती है
वह याद तुम्हारी आठ पहर।
बस एक नखत ही चमक रहा है
अब भी काली लहरों पर,
जिस को न अभी तक ढँक पाए हैं
सावन के बूँदी-बादर।
यह जीवन यदि अपना होता
यदि वश होता अपने ऊपर,
यह दु:खी हृदय भी भर आता
भूले दु:ख से जैसे सागर।
वह डूब गया चंचल तारा
जो चमक रहा था लहरों पर,
सावन के बूँदी-बादर में
अब एक वही स्वर हहर-हहर।
सागर की छाती से उठ कर
यह टकराती है कहाँ लहर?
जिस ठौर नखत वह बुझ कर भी
जलता रहता है आठ पहर।
सागर लंबी साँसें भरता है
सिर धुनती है लहर-लहर,
पर आगे बढ़ता है मानव
अपनेपन से ऊपर उठ कर।
आगे सागर का जल अथाह
ऊपर हैं नीर-भरे बादर,
बढ़ता है फिर भी जन-समूह
जल की इस जड़ता के ऊपर।
बैठा है कौन किनारे पर,
यह गरज रहा है जन-सागर,
पीछे हट कर सिर धुन कर भी
आगे बढ़ती है लहर-लहर।
दु:ख के इस हहर-हहर में भी
ऊँचा उठता है जय का स्वर;
सीमा के बंधन तोड़ रही है
सागर की प्रत्येक लहर।


            

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