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समारंभ (कविता) Editior's Choice

घर नींव में है। बीच में पेड़ होता है ज्यों।
घर भूमिका है। रिश्तों का पूर्व-कथन।

एक निश्चय है सुगबुगाता हुआ
हाथों के हाथ—धर्म निभाने की
शुरुआत करता हुआ।

अभी थोड़ी देर में पसीना टपकने लगेगा
तो एक ऐसा आँगन बन जाएगा
जिसमें फूल ही फूल बिखरे होंगे।

होंठों से श्रम-गीत भी
बस, फूटने ही वाला है और
तब
बनती हुई अँधेरी सीढ़ियाँ
छत की ओर जाते-जाते
ऐन बीच में
इंद्रधनुष बन जाएँगी।

ऐसा इंद्रधनुष
जो आज से कल के बीच में
पुल-धर्म निभाएगा।

एक विराट कुनमुनाहट जारी हो चुकी है।
चारों ओर। लोग, बस जागने ही वाले हैं।


रचनाकार : वेणु गोपाल
            

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