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साँसें (कविता) Editior's Choice

उत्तप्त धरती की गरमीली, हल्की साँस
ऊपर उठी;
प्रोज्वल गगन की सर्दीली, भारी साँस
नीचे झुकी;
यह हुआ फिर-फिर
जब तक न आई साँझ घिर-घर
और नीचे ऊपर की साँसें सम न हो गईं
सम, शीतल और शांत
जैसे-जैसे कि
हम।


            

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