रोज़ यूँ तो ज़िन्दगी मिलती रही,
साथ लेकिन बेबसी मिलती रही।
चाँद सूरज तो रहे बस ख़ाब में,
असलियत में तीरगी मिलती रही।
रोटियों के नाम पर मज़दूर को,
रात-दिन फ़ाक़ा-कशी मिलती रही।
है रखी जिसने यहाँ गिरवी अना,
बस उसे ही हर ख़ुशी मिलती रही।
गिरगिटों ने ठीक माफ़ी माँगली,
आदमी से हार ही मिलती रही।
है ज़मीं ये ज़ुल्म की ज़रख़ेज़ है,
शाइरों को शाइरी मिलती रही।
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