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रोज़ यही होता है (कविता) Editior's Choice

‘समझौते हमेशा-हमेशा ग़लत होते हैं’
यह कहने से पहले ज़रा तो सोच लेते
कि इन फ़तवे में फिर से वे ही शब्द आ गए हैं
जो अक्सर तुम्हारे पैरों को चादर से बाहर
कर देते हैं।

यह सच है कि
‘ब’ आकाश के रंग से, लेकिन
बारहखड़ी के अक्षरों में तो एक रत्ती भी फ़र्क़ नहीं पड़ा।

और साथ ही यह क्यों भूलते हो
कि हमारे होंठों से,
सड़क की बात तो दूर, कोई पतली-सी पगडंडी भी
हमारे हाथों तक नहीं पहुँचती

हथौड़े हैं तो सही
हमारे हाथों में—पर
सिवा अपने वज़न से
हमारे जिस्मों को संतुलित करने के
वे और कुछ नहीं करते।
कि चौराहों पर खड़ी
गांधियों की मूर्तियों को
झुक-झुक कर प्रणाम तो हम बराबर
करते ही चले जाते हैं।

होने के नाम पर रोज़ यही होता है
कि सवेरे की गुनगुनी धूप
धीरे-धीरे लोक-कथाओं में ढलती है और हमारे
आस-पास चालू प्रतीकों का एक हुजूम
जमा हो जाता है
लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि दिन
मुर्दा समंदर को पार करें, इस ओर आएँ, किसी
शर्मीले बच्चे की तरह
ख़ामोश रहे, फिर वक़्त पर चला जाए
और हम
कैलेंडर
के साथ ही एक क़दम आगे बढ़ जाएँ—
आराम की साँस लेते हुए।


रचनाकार : वेणु गोपाल
            

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