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राष्ट्रीय वीणा (कविता) Editior's Choice

यह गुंजार कहाँ से आई
चौंक पड़ा, मैं बोल उठा,
कँपने लगा हृदय, हरि जाने
मैं भय-विह्वल डोल उठा!

'फिर कुछ बजा', सोच कर मन में
फिर मैं कुछ-कुछ जान गया;
'वीणा की झंकार हुई है', यही
बात अनुमान गया!

'निष्ठुर बड़ा बजानेवाला'
यों कह दौड़ा ध्वनि की ओर,
किंतु मध्य में रुका, सुना—
जब पकड़ो-मारो का कुछ शोर;

ज्यों-त्यों लड़ता-भिड़ता पहुँचा
मैं प्यारी वीणा के पास,
किंतु मातु को पा उदास
मन सूख गया, हो गया निराश;

झंझावात भयानक ही से
बजते थे वे सारे तार,
मची हुई थी समय राज की
उन तारों पर मारामार;

हाँ अवश्य अकुलाते थे वे
निकल रही थी गहरी आह,
मै भी बना वहाँ पर जाकर
उस प्यारी वीणा का तार;

कसे हुए पीटे जाते हैं
भारी शोर मचाते हैं,
हा! हा!! हमें पीटनेवाले
ज़रा नहीं सकुचाते हैं;

पर हैं सबल, डरेंगे क्योंकर,
है शरीर का दान किया।
इस प्रकार माँ की वीणा का
दृढ़ होकर सम्मान किया।

मुझ पर पड़ी मार, कुछ कँपकर,
मैंने ऐसी की गुंजार—
कैसे मौन बैठता? कब तक?
पड़ने लगी मार पर मार!

अजी न था उपदेश, न था—
आदेश, न था उद्देश विधान
थी वह केवल पिटनेवाले
तारों के प्राणों की तान!

क्या? 'राष्ट्रीय मधुर वीणा में,
टूटा-फूटा तार न हो,
काँपे, हिले, खिंचे, झुक जाए,
किसी भाँति इंकार न हो।'

विश्व देव! सब गूँज उठे
क्या अब भी बल संचार न हो?
पड़े ‘तार पर मार' कहो क्या—
वीणा से झंकार न हो?


            

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