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रात (नज़्म) Editior's Choice

मिरी दहलीज़ पर बैठी हुई ज़ानू पे सर रक्खे
ये शब अफ़्सोस करने आई है कि मेरे घर पे
आज ही जो मर गया है दिन
वो दिन हम-ज़ाद था उस का
वो आई है कि मेरे घर में इस को दफ़्न कर के
इक दिया दहलीज़ पर रख कर
निशानी छोड़ दे कि महव है ये क़ब्र
इस में दूसरा आ कर नहीं लेटे
मैं शब को कैसे बतलाऊँ
बहुत से दिन मिरे आँगन में यूँ आधे अधूरे से
कफ़न ओढ़े पड़े हैं कितने सालों से
जिन्हें मैं आज तक दफ़ना नहीं पाया


रचनाकार : गुलज़ार
            

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