एकाएक
कैसा खिल उठा दर्द
पत्ती-पत्ती में बनकर फूल
सहकर एक उम्र भर की अनदेखी
किसी अपने से भी अपने की
ख़ामोशी में किस क़दर रखकर गया था भूल
बेख़बर रहा आया कितना
मुझसे मेरा ब्याज, मेरा मूल।
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