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पिताओं के बारे में (कविता) Editior's Choice

मैंने बहुत समय तक
कविता नहीं लिखी
समझिए बस लिखते-लिखते नहीं लिखी

इसकी एक वजह तो आलस ही है
लेकिन यह वजह तो लगभग
झूठ की तरह है

इस बीच मैं
पिताओं की दुनिया में धँसी रही

इस दुनिया में मैं गई थी
अपने पिता को छोड़कर
बेटियों का पीछा करते हुए

मैंने वे पिता देखे जो
बेटी को आँख की पुतली की तरह
सहेजे रहते हैं
लगभग बड़ी घनी
पलक की छाया में

और वह पिता भी
जो शर्मसार रहता है
बेटी की छाया ओढ़े

पिता जो एक ज़ख़्म की तरह
बेटी की देखभाल करता है
चेहरे को दर्द की उलझी
सलवटों में छिपाए

उन पिताओं को तो सभी ने देखा है
जो बेटियों से खेलते हैं
गुड़िया की तरह
और विदा भी कर देते हैं
गुड़ियों की तरह
झालरों और गोटे-किनारी से ढककर

अब तो कविताओं में
ख़ुद वे पिता भी
आ गए हैं
जो पढ़ाई और नौकरी के रास्ते में
बेटियों के साथ भी भटकते हैं

वे पिता भी बहुत पहले
आ गए कविता में
जो बेटे वालों के लालच पर
क्रुद्ध थे

लड़की की मुश्किलें देखते
पिताओं के
करुण सजल चेहरे भी हैं

ऐसे पिता भी हैं
जिनका ज़िक्र पिता की तरह
नहीं किया जा सकता

मैं चाहती थी उनसे
कविता को बचाना
असल में मैं चाहती थी
थोड़ा झूठ बचा रहे
ताकि स्वप्न और कल्पना
नष्ट न हो
मैं चाहती थी
मिथक गढ़ने वाली
मिट्टी बची रहे

कूड़े का मुझे डर नहीं था
पर एक रसायन से मैं बच रही थी
जो संवेदी तंतुओं को ज़हर से भर देता है

फिर पिता की
कुछ स्मृतियों ने बनाया मुझे
इस रसायन का सामना करने लायक़

ब्राह्मण समाज छोड़कर
जंगलों में भटकते
रमा को संस्कृत पढ़ाते पिता
आए मेरे सपने में
फिर नज़र आए
छोटे-से क़स्बे में
कचहरी में जज से बहस करते
धारावाहिक संस्कृत श्लोक उद्धृत करते
प्रताड़ित बेटी के लिए
तलाक़ की वकालत करते

एक दिन सपने में
ग़ालिब जैसी टोपी पहने
सुतवाँ जिस्म वाले पिता आए
सफ़ेद भवों के नीचे
बड़ी आँखें ढके
मुझे बताते हुए :
‘शुभा एक बौद्ध भिक्षुणी थी’

फिर वे नज़र आए
एक रुकी नाली से गाद निकालते
उनकी पीठ नज़र आई
माँ की कराहों के साथ झुकती
जिसमें अपने द्वारा की गई
हिंसा की स्मृति एक शर्म की तरह
पिघल रही थी

मैंने देखा
बेटियों के पिता
अकेले हो गए हैं

वे बदहवास थानों-कचहरियों की ओर
भागते हैं दिन-रात
उन्हें नरक में धकेल दिया गया है
काल्पनिक नहीं असली नरक में
पिता अपने को रोने से रोकते हैं
पर उनके जबड़े कसते जाते हैं
आँखें गड्ढों में उतर जाती हैं
अपमान उन्हें कुछ भी नहीं भूलने देता
वे बेख़बर हत्या और आत्महत्या तक पहुँचते हैं

जनतंत्र के जश्न में
नमक की डली की तरह
सबके सामने गल जाते हैं पिता

पितृत्व की क़ीमत बहुत ज़्यादा है
लगभग मातृत्व के बराबर
स्त्री-पुरुष पर चलती बहसें
नक़ली लगती हैं कभी-कभी

माँएँ रो सकती हैं आख़िर तक
पिताओं को विदा होना होता है चुपचाप

पिता तो ख़ैर
एक जैसे नहीं होते
मगर सभी पिता
अंततः पिता तो होते ही हैं

पिताओं को छोड़ देना चाहिए
लड़कियों को बेटी की तरह देखना
उन्हें लड़कियों के पक्ष में
कुछ करना चाहिए

ख़ुद पिता भी पहचानें अपने को
जनतंत्र के बाशिंदे की तरह
लड़कियों के बरअक्स।


रचनाकार : शुभा
            

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