अब तो चेत करो रे भाई।
जब सर्बसु कढ़ि गयो हाथ ते तब न उचित हुरिहाई॥
उपज घटे धरती को दिन दिन नाज नितहि महँगाई।
कहा खाए त्योहार मनावें भूखे लोग लुगाई॥
सब धन ढोयो जात बिलायत रह्यो दलिद्दर छाई।
अन्न वस्त्र कहँ सब जन तरसैं होरी कहाँ सुहाई॥
वन कटि गए लकरियाँ महँगी, तहूँ टिकस अधिकाई।
जहँ ईंधन की आफ़त है वहँ सकै को ढेर ज़राई॥
केशरि की है कौन कथा जहँ टेसू फूल दबाई।
रंग मजंटा जेहि पर डरिहौ तेहि चढ़िए मतवाई॥
जो तुम्हरे घर होए लच्छिमी तौ सब देहु लुटाई।
सब ही सुख लखि फाग मचावो नाहिं न निरलजताई॥
देश दुरदशा हरन समरथी कोऊ न पुरुष दिखाई।
बसैं मेहरियाँ हिंद भरे में सोउ जग रही हँसाई॥
गाढ़ी प्यारी कौन काहि जो जिहि कहुँ देखि जुड़ाई।
फिर होरी दशहरा दिवारी एकहु नहिं सुखदाई॥
पहिले सबहि बनाओ अपनो साँची ठानि मिताई।
फिर तन मन दै हरो देश दुख नहिं जीवन जर जाई॥
जब सब कोऊ सदा बजावैं पर घन अनंद बधाई।
तब नित होरी नितै दिवारी नहिं प्रताप भँड़िहाई॥
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