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पश्चाताप की अग्नि (कविता)

स्तब्ध रह गया धरा गगन
मौन हो गए जन के बोल,
निष्ठुर ईश्वर तूने खेला
क्यों ऐसा अनचाहा खेल।
माना तू करता रहता है
ऐसे निष्ठुर अनगिन खेल,
तू भी तो हैरान हुआ होगा
किया क्यों मैंनें ऐसा खेल।
निश्चय ही तेरे मन में भी
आज हुआ होगा पश्चाताप,
व्यथित हृदय से सोच रहा होगा
अब न करूँगा ऐसे खेल।
पश्चाताप की अग्नि में तू
आज स्वयं में जलता होगा,
ऐसा खेल किया क्यों मैंने
ख़ुद को धिक्कार रहा होगा।
आख़िर मैंनें क्या कर डाला
तू भी यही सोचता होगा,
पश्चाताप के आँसू का प्याला
तू भी आज पी रहा होगा।


लेखन तिथि : 10 दिसम्बर, 2021
            

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