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पहाड़ी औरतें (कविता) Editior's Choice

पहाड़ की औरतें
सूरज को जगाती हैं
मुँह अँधेरे
बनाकर गुड़ की चाय
और उतारती हैं
सूर्य-रश्मियों को
जब जाती हैं धारे में

भर लेती हैं सूरज की किरणों को
जब भरती हैं
बंठा धारे के पानी से
पहाड़ की औरतें रखती हैं
सूरज के लिए
कुछ पल आराम के
भरी दुपहरी में
सुस्ता लेता है भास्कर
पहाड़ी औरतों के सिर पर रखे
घास के बोझ तले!

और साँझ को
जब गोधूलि बेला में
आते हैं पशु-पक्षी अपने
आशियानों में लौटकर
तो सूरज को भी कर देती हैं
विदा...
अपनी रसोई में चूल्हे की
आग जलाकर!

पहाड़ी औरतें
रखती हैं बनाकर यादों को
कुट्यारी
और जब कमर झुक जाती है उनकी
तो समूण बनाकर
सौंप देती हैं वो कुट्यारी
अपने नाती-पोतों को!

पहाड़ी औरतें असमय ही
हो जाती हैं बूढ़ी!
क्योंकि उन्हें होता है
तज़ुर्बा चढ़ाई का और रपटीली ढलानों का भी!

पहाड़ी औरतों के चेहरे की झुर्रियों में
पूरा पहाड़ दिखाई देता है
लदा होता है उनके कांधों पर
बोझ पहाड़ जैसा!

पहाड़ की औरतें
नहीं डरती चढ़ाइयों को देखकर
यूँ ही नहीं घबराती
उतरती रपटीली पगडंडियों पर चलने से
क्योंकि वो रोज़ ही भरती हैं कुलाँचे
किसी कस्तूरी मृग सी इन रास्तों पर

असल में पहाड़ी औरतें
रखती हैं एक पूरा पहाड़
अपने अंदर!
उनके गुठ्यार में
लिखी होती हैं
पहाड़ की पीड़ाएँ!


            

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