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नए अन्न की आहट (कविता) Editior's Choice

वे खड़े हैं
जो जानते हैं
पौधों की प्यास
नींद
और जड़ों की बेचैनी

ज़मीन के भीतर का
जो अँधेरा जानते हैं
वे खड़े हैं
और उनके पाँव तले नहीं है ज़मीन

उनकी आँखों में है
हलों के फाल-सी तेज़ धार
छातियों में धधक रही है आग

उनकी आँखों में है
हलों के फाल-सी तेज़ धार
छातियों में धधक रही है आग

आकाश में
जब गूँजती है उनकी हुँकार
पृथ्वी काँपने लगती है
काँपने लगती है भूपतियों की टाँगें
भू पर गिर पड़ते हैं
भूपतियों के नक़ली दाँत

सख़्त मिट्टी को नरम बनाते-बनाते
जिन हाथों में पड़ जाती है गाँठ
हवा में हिल रहे हैं वे हाथ
गेहूँ की हिलती बालियों की तरह

वे चाहते हैं
थोड़ी पृथ्वी
थोड़ा पानी
और खुला आकाश

वे और कुछ नहीं चाहते
सिर्फ़ चाहते हैं
जब कोई चिड़िया
उनके आँगन से उड़े
उसकी चोंच में दबा हो
कम से कम एक अदद दाना

उनकी पकी फ़सल
हर बार चर न जाए
छुट्टा साँड़
वे सिर्फ़ इतना भर चाहते हैं

लेकिन उन्हें कुछ भी नहीं मिलता
मिलती है सिर्फ़ भूख
बारूद की गंध
और कारतूस

उनके रक्त से भीग जाती है
गांधी की किताब

रक्त
जिसमें आग-सी चमक है
और नए अन्न की आहट

रक्त
जो एक दिन अपना रंग दिखाएगा
और आततायियों के शरीर से
नक्सीर बनकर फूटेगा


रचनाकार : विनोद दास
            

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