जहाँ भी गया मैं
नदियाँ मेरे काम आईं
भटका इतने देस-परदेस
देर-सबेर परास्त हुआ पड़ोस से
इसी बीच चमकी कोई आबेहयात
मनहूस मोहल्ला भी दरियागंज हुआ
पैरों के पास से सरकती लकीर
समेटती रही दीन और दुनिया
क़ाबिज़ हुई मैदानों-बियाबानों में
ज़माने की मददगार
किनारे तोड़कर घर-घर में घुसती रही
सिरहाने को फोड़ती सुर सरिता
दुःखांशों से देशांतरों को
महासागर तक अपने अंत में
पुकारती हुई
मलेनी नेवज डंकिनी शंखिनी
इंद्रावती गोदावरी नर्मदा शिप्रा
चंबल बीहड़ों को पार करती
कोई न कोई काम आई पुण्य सलिला
जैसे ही मैं शिकार हुआ
अब सब मरहले तय करके
व्यतीत व्यसनों में विलीन
दाख़िल हुआ इस दिल्ली में उदास
इसका भी भला हो
सुनता हूँ यहाँ भी एक यमुना है
वह भी एक दिन काम ज़रूर आएगी।
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