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नाज़-ए-हुस्न से जो पहल हो गई (ग़ज़ल)

नाज़-ए-हुस्न से जो पहल हो गई,
मौत भी आज से तो सरल हो गई।

मोहिनी कमल नयनी बँधी डोर सी,
सर्पिणी सी लिपट मय गरल हो गई।

इश्क़ थी दूर की बात मेरे सनम,
ज़िंदगी बे-शऊर अब हल हो गई।

भर गई थी लबालब तलहटी अना,
आज निश्छल दिलों सी सजल हो गई।

गुनगुनाता रहा बहुत देर तक जब,
भाव ओठ पर आके ग़ज़ल हो गई।

बंजर विरान थी 'समित' की ज़िंदगी,
प्रेम प्याला पिला वो फ़ज़ल हो गई।


लेखन तिथि : 24 अगस्त, 2019
अरकान: फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
तक़ती: 212 212 212 212
            

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