घरों को भाग लिए थे सभी मज़दूर, कारीगर
मशीनें बंद होने लग गई थीं शहर की सारी
उन्हीं से हाथ पाओं चलते रहते थे
वरना ज़िंदगी तो गाँव ही में बो के आए थे।
वो एकड़ और दो एकड़ ज़मीं, और पाँच एकड़
कटाई और बुआई सब वहीं तो थी
ज्वारी, धान, मक्की, बाजरे सब।
वो बँटवारे, चचेरे और ममेरे भाइयों से
फ़साद नाले पे, परनालों पे झगड़े
लठैत अपने, कभी उनके।
वो नानी, दादी और दादू के मुक़दमे
सगाई, शादियाँ, खलिहान,
सूखा, बाढ़, हर बार आसमाँ बरसे न बरसे।
मरेंगे तो वहीं जाकर जहाँ पर ज़िंदगी है
यहाँ तो जिस्म लाकर प्लग लगाए थे!
निकाले प्लग सभी ने,
‘चलो अब घर चलें’—और चल दिए सब,
मरेंगे तो वहीं जाकर जहाँ पर ज़िंदगी है!
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