देशभक्ति / सुविचार / प्रेम / प्रेरक / माँ / स्त्री / जीवन

किसान कवि और उसका पुत्र (कविता) Editior's Choice

नीले रँग में डूब गया सारा नभ-मंडल,
पूर्व दिशा में उठे घने दल के दल बादल
लहराती पुरवाई के झोंकों पर आए,
धूल-भरे लू से झुलसे खेतों पर छाए।
आमों की सुगंध से महक उठी पुरवाई,
पिउ-पिउ के मृदु रव से गूँज उठी अमराई।
जग के दग्ध हृदय पर गह-गह बादर बरसे,
डह—डह अंकुर फूटे वसुधा के अंतर से।
बह न जाए जीवन अपार सीमा से बाहर,
मेड़ बाँधता है किसान खेतों में जाकर।
यह असाढ़ का पहला दिन, ये काले बादल,
लू से झुलसे हाड़ों को करते हैं शीतल।
टपक रहा है टूटा घर, खटिया टूटी है,
एक यहाँ मनचाही सुख की लूट नहीं है।
भरे तराई-ताल, नदी-नाले उतराए,
आता है सैलाब, गाँव जिस में बह जाए।
दीवारों को फिर मिट्टी से छोप-छाप कर,
बचा सकेगा कौन भला ये टूटे खंडहर!
हरे-हरे तरु-पात, जमे अंकुर ऊसर में,
उमड़ रहा है जल अपार जीवन सरि-सर में।
फिर भी उल्कापात एक उस तरु पर केवल,
वन के सब वृक्षों में था जिस का मीठा फल।
छार-छार हो गए पात सब वज्रपात से,
वह पंछी उड़ गया; हाय, उड़ गया हाथ से!
यह वर्षा की ऋतु, ढेलों में जीवन फूटा,
जिन में वज्र हड्डियों का वह ढाँचा टूटा।
वर्षा की ऋतु-डोली फिर वन में पुरवाई,
पुरवाई के साथ मृत्यु भी उड़ती आई।
बरस रहा है जब वन में खेतों में जीवन,
किस ने किया इन्हीं खेतों में प्राण-विसर्जन?
किसकी मिट्टी पर यह खेतों की हरियाली?
किसके लाल लहू की फागुन में यह लाली?
ओ मेरे साथी! मेरे जाने-पहचाने!
वज्र हड्डियों से बन गए अन्न के दाने!
साथी अपनी छोड़ गया था एक निशानी,
साथी से ज़्यादा है उस की करुण कहानी।
वह सूने वन में आशा का फूल खिला था,
सूने वन को उस तरु का वरदान मिला था!
प्रतिभा का वह फूल, किसी अज्ञात दिशा में,
धूमकेतु-सा खिला और छिप गया निशा में।
चंद्रहीन है अमा निशा का जल-सा तम है।
दु:ख का पारावार अकूल अथाह अगम है।
अनजानी है राह, न साथी आज पास है।
एक नियति का पीछे कर्कश अट्टहास है।
यह मानव का हृदय क्षुद्र इस्पात नहीं है।
भय से सिहर उठे वह तरु का पात नहीं है।
रेत और पानी से बन जाते हैं पत्थर,
हृदय बना है आग और आँसू से मिल कर।
फिर भी सूनी धूप देख कर तरु-पातों पर।
कहीं बिलम जाता है मन बिसरी बातों पर,
कहीं हृदय के सौ इस्पाती बंधन टूटे
कहीं व्यथा के स्रोत हृदय में फिर से फूटे।
दु:ख का पारावार उमड़ आया आँखों में,
यह जीवन की हार नहीं छिपती आँखों में।
मेरी अंध निराशा का यह गीत नहीं है।
मन बहलाने को मोहक संगीत नहीं है।
जीवन की इस मरण-व्यथा को सहना होगा,
अंतर में यह व्यथा छिपाए रहना होगा।
काल-रात्रि में चार प्रहर अविराम जागरण!
यही व्यथा का पुरस्कार है, अति साधारण!
बँध न सकेगा लघु सीमाओं में लघु जीवन;
लघु जीवन से अमर बनेगा बहु-जन-जीवन!
अडिग यही विश्वास, क्षुद्र है जीवन चंचल;
अनजानी है राह; यही साहस है संबल।
यह मानव का हृदय क्षुद्र इस्पात नहीं है।
भय से सिहर उठे वह तरु का पात नहीं है।


            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें