बेंगलुरु, कर्नाटक | 1998
मुझे कविता नहीं आती वह तो बस कई दफ़े रोटी सेंकते नज़र अटक जाती है दहकते तवे की ओर और हाथ छू जाता है उससे तब उफन पड़ती है— कविता।
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