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कवि (कविता) Editior's Choice

1

वह सहज विलंबित मंथर गति जिसको निहार
गजराज लाज से राह छोड़ दे एक बार;
काले लहराते बाल देव-सा तन विशाल,
आर्यों का गर्वोन्नत, प्रशस्त, अविनीत भाल;
झंकृत करती थी जिसकी वाणी में अमोल,
शारदा सरस वीणा के सार्थक सधे बोल;—
कुछ काम न आया वह कवित्व आर्यत्व आज,
संध्या की वेला शिथिल हो गए सभी साज।
पथ में अब वन्य जंतुओं का रोदन कराल।
एकाकीपन के साथी हैं केवल शृगाल।

2

अब कहाँ यक्ष-से कवि-कुल-गुरु का ठाट-बाट?
अर्पित है कवि-चरणों में किसका राजपाट?
उन स्वर्ण-खचित प्रासादों में किसका विलास?
कवि के अंत:पुर में किस श्यामा का निवास?
पैरों में कठिन बिवाई कटती नहीं डगर;
आँखों में आँसू, दु:ख से खुलते नहीं अधर!
खो गया कहीं सूने नभ में वह अरुण राग,
धूसर संध्या में कवि उदास है वीतराग!
अब वन्य जंतुओं का पथ में रोदन कराल।
एकाकीपन के साथी हैं केवल शृगाल।

3

अज्ञान-निशा को बीत चुका है अंधकार;
खिल उठा गगन में अरुण-ज्योति का सहस्रार।
किरणों ने नभ में जीवन के लिख दिए लेख;
गाते हैं वन के विहग ज्योति का गीत एक।
फिर क्यों पथ में यह संध्या की छाया उदास?
क्यों सहस्रार का मुरझाया नभ में प्रकाश?
किरणों ने पहनाया था जिसको मुकुट एक,
माथे पर वहीं लिखे हैं दु:ख के अमिट लेख।
अब वन्य जंतुओं का पथ में रोदन कराल,
एकाकीपन के साथी हैं केवल शृगाल।

4

इन वन्य जंतुओं से मनुष्य फिर भी महान् :
तू क्षुद्र मरण से जीवन को ही श्रेष्ठ मान।
‘रावण-महिमा-श्यामा-विभावरी-अंधकार'।—
बँट गया तीक्ष्ण बाणों से वह भी तम अपार
अब बीती बहुत रही थोड़ी, मत हो निराश,
छाया-सी संध्या का यद्यपि धूसर प्रकाश।
उस वज्र-हृदय से फिर भी तू साहस बटोर,
कर दिए विफल जिसने प्रहार विधि के कठोर।
क्या कर लेगा मानव का यह रोदन कराल?
रोने दे यदि रोते हैं वन-पथ में शृगाल।

5

कट गई डगर जीवन की, थोड़ी रही और;
इस वन में कुश-कंटक, सोने को नहीं ठौर।
क्षत चरण न विचलित हों, मुँह से निकले न आह;
थक कर मत गिर पड़ना ओ साथी बीच राह।
यह कहे न कोई जीर्ण हो गया जब शरीर,
विचलित हो गया हृदय भी पीड़ा से अधीर।
पथ में उन अमिट रक्त-चिह्नों की रहे शान,
मर मिटने को आते हैं पीछे नौजवान।
इस वन में जहाँ अशुभ ये रोते हैं शृगाल,
निर्मित होगी जन-सत्ता की नगरी विशाल।


            

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