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जग में अब भी गूँज रहे हैं (कविता) Editior's Choice

जग में अब भी गूँज रहे हैं गीत हमारे;
शौर्य, वीर्य्य, गुण हुए न अब भी हमसे न्यारे।
रोम, मिस्र, चीनादि काँपते रहते सारे,
यूनानी तो अभी अभी हमसे हैं हारे।
सब हमें जानते हैं सदा
भारतीय हम हैं अभय;
फिर एक बार हे विश्व! तुम
गाओ भारत की विजय॥

साक्षी है इतिहास, हमीं पहले जागे हैं,
जागृत सब हो रहे हमारे ही आगे हैं।
शत्रु हमारे कहाँ नहीं भय से भागे हैं,
कायरता से कहाँ प्राण हमने त्यागे हैं?
हैं हमीं प्रकंपित कर चुके
सुरपति तक का भी हृदय,
फिर एक बार हे विश्व! तुम
गाओ भारत की विजय॥

कहाँ प्रकाशित नहीं रहा है तेज़ हमारा?
दलित कर चुके सभी शत्रु हम पैरों द्वारा।
बतलाओ, वह कौन नहीं जो हमसे हारा,
पर शरणागत हुआ कहाँ, कब हमें न प्यारा?
बस, युद्ध मात्र को छोड़कर
कहाँ नहीं हैं हम सदय?
फिर एक बार हे विश्व! तुम
गाओ भारत की विजय॥

कारणवश जब हमें क्रोध कुछ हो आता है,
अवनि और आकाश प्रकंपित हो जाता है।
यही हाथ वह कठिन कार्य कर दिखलाता है—
स्वयं शौर्य भी जिसे देखकर सकुचाता है
हम धीर, वीर, गंभीर हैं;
है हमको कब कौन भय?
फिर एक बार हे विश्व! तुम
गाओ भारत की विजय॥

चंद्रगुप्त सम्राट हमारे हैं बलधारी,
सिल्यूकस की सर्व शक्ति है जिनसे हारी।
जिनका वीर्य्य विलोक मुग्ध मन में हो भारी,
पहनाई जयमाल जय-श्री ने सुखकारी।
हे हरि! गुंजित हो स्वर्ग तक
यह विजय-ध्वनि हर्षमय,
फिर एक बार हे विश्व! तुम
गाओ भारत की विजय॥

ताल दे उठी अहा! प्रतिध्वनि इस कीर्तन में,
हुई यही ध्वनि व्योम, शैल, नद, नगर, विजन में।
दो सहस्र से अधिक हो गये यद्यपि वत्सर,
पर विलीन हो सकी नहीं वह ध्वनि श्रुति-सुखकर।
गावेंगे ऐसे गीत हम
क्या फिर और किसी समय?
फिर एक बार हे विश्व! तुम
गाओ भारत की विजय॥


            

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