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जड़ें (कहानी) Editior's Choice

सब के चेहरे फ़क़ थे घर में खाना भी न पका था। आज छटा रोज़ था। बच्चे स्कूल छोड़े घरों में बैठे अपनी और सारे घर वालों की ज़िंदगी वबाल किए दे रहे थे। वही मार-कुटाई, धौल-धप्पा, वही उधम और क़लाबाज़ियाँ जैसे 15 अगस्त आया ही न हो। कमबख़्तों को ये भी ख़्याल नहीं कि अंग्रेज़ चले गए और चलते-चलते ऐसा गहरा घाव मार गए जो बरसों रिसेगा।

हिंदुस्तान पर अमल-ए-जर्राही कुछ ऐसे लुंजे हाथों और खुट्टल नश्तरों से हुआ है कि हज़ारों शिरयानें कट गई हैं। ख़ून की नदियाँ बह रही हैं। किसी में इतनी सकत नहीं कि टाँका लगा सके।

कोई और मामूली दिन होता तो कमबख़्तों से कहा जाता बाहर काला मुँह कर के ग़दर मचाओ लेकिन चंद रोज़ से शह्र की फ़िज़ा ऐसी ग़लीज़ हो रही थी कि शह्र के सारे मुसलमान एक तरह से नज़रबंद बैठे थे। घरों में ताले पड़े थे और बाहर पुलिस का पहरा था। लिहाज़ा कलेजे के टुकड़ों को सीने पर कोदों दलने के लिए छोड़ दिया गया। वैसे सिविल लाइंस में अम्न ही था जैसा कि आम तौर पर रहता है, ये तो गंदगी वहीं ज़्यादा उछलती है जहाँ छः बच्चे होते हैं। जहाँ ग़ुर्बत होती है। वहीं जहालत के घूरे पर नाम निहाद मज़हब के ढेर बिज-बिजाते हैं और ये ढेर कुरेदे जा चुके थे।

ऊपर से पंजाब से आने वालों की दिन-ब-दिन बढ़ती हुई तादाद अक़ल्लीयत के दिल में दहश्त बिठा रही थी। ग़लाज़त के ढेर तेज़ी से कुरेदे जा रहे थे। उफ़ूनत रेंगती-रेंगती साफ़ सुथरी सड़कों पर पहुँच चुकी थी। दो-चार जगह तो खुल्लम-खुल्ला मुज़ाहिरे भी हुए लेकिन मारवाड़ की रियास्तों के हिंदू-मुसलमान की इस क़दर मिलती-जलती मुआशरत है कि उन्हें नाम, सूरत या लिबास से भी बाहर वाले मुश्किल से पहचान सकते हैं। बाहर वाले अक़लीयत के लोग जो आसानी से पहचाने जा सकते थे वो तो पंद्रह अगस्त की बू पाकर ही पाकिस्तान की हुदूद में खिसक गए थे। रहे रियासत के क़दीम बाशिंदे तो न ही उनमें इतनी समझ और न ही उनकी इतनी हैसियत कि पाकिस्तान और हिन्दुस्तान का दक़ीक़ मसला उन्हें कोई बैठ कर समझाता। जिन्हें समझना था वो समझ चुके थे और वो महफ़ूज़ हो चुके थे, बाक़ी जो ये सुनकर गए थे कि चार सेर का गेहूँ और चार आने की हाथ भर लंबी नान पाव मिलती है, वो लौट रहे थे। क्योंकि वहाँ जा कर उन्हें ये भी पता चला कि चार सेर का गेहूँ ख़रीदने के लिए एक रुपया की भी ज़रूरत होती है और हाथ भर लंबी नान पाव के लिए पूरी चवन्नी देना पड़ती है और ये रुपया अठन्नियां न ही किसी दूकान पर मिलें और न खेतों में उगें। उन्हें हासिल करना इतना ही मुश्किल है जितना ज़िंदा रहने की तग-ओ-दो।

लिहाज़ा जब खुल्लम खुल्ला इलाक़ों से अक़ल्लीयत को निकालने की राय हुई तो बड़ी मुश्किल आन पड़ी। ठाकुरों ने साफ़ कह दिया कि साहब रिआया ऐसी गुत्थी मिली रहती है। मुसलमानों को बीन कर निकालने के लिए बा-क़ायदा स्टाफ़ की ज़रूरत है जो कि बेकार ज़ाइद ख़र्च है, वैसे आप अगर कोई टुकड़े ज़मीन के शरणार्थियों के लिए ख़रीदना चाहें तो वो ख़ाली कराए जा सकते हैं। जानवर तो रहते ही हैं। जब कहिए जंगल ख़ाली कर दिया जाएँ।

अब बाक़ी रह गए चंद गिने-चुने ख़ानदान। जो या तो महाराजा के चेले-चांटों में से थे और जिनके जाने का सवाल न था या वो जो जाने को तुले बैठे थे।

बस बिस्तर बंध रहे थे। हमारा ख़ानदान भी उसी फ़ेहरिस्त में आता था। जब तक बड़े भाई अजमेर से न आए थे कुछ ऐसी जल्दी न थी मगर उन्होंने तो आकर बौखला ही दिया। फिर भी किसी ने ज़्यादा अहमियत नहीं दी। वो तो शायद किसी के कान पर जूं न रेंगती और बरसों अस्बाब न बंध चुकता जो अल्लाह भला करे छब्बा मियाँ का वो पैंतरा न चलते। बड़े भाई तो जाने ही वाले थे कह कह कर हार गए थे। तो मियाँ छब्बा ने क्या किया कि एक दम स्कूल की दीवार पर 'पाकिस्तान ज़िंदाबाद' लिखने का फ़ैसला कर लिया। रूप चंद जी के बच्चों ने इसकी मुख़ालिफ़त की और फ़ौरन बिगाड़ कर 'अखंड हिन्दुस्तान' लिख दिया। नतीजा ये कि चल गया जूता और एक दूसरे ही को सफ़ा-ए-हस्ती से मिटाने की सई फ़रमाई गई, बात बढ़ गई। हत्ता कि पुलिस बुलाई गई और जो चंद गिनती के मुसलमान बचे थे, उन्हें लारी में भर कर घरों को भिजवा दिया गया।

अब सुनिए कि जूं ही बच्चे घर में आए हमेशा हैज़ा-ताऊन के सपुर्द करने वाली माएँ ममता से बेक़रार हो कर दौड़ीं, और उन्हें कलेजे से लगा लिया गया। और कोई दिन होता और रूप चंद जी के बच्चों से छब्बा लड़ कर आता तो दुल्हन भाबी उसकी वो जूतियों से मरहम पट्टी करतीं कि तौबा भली, और उठा कर उन्हें रूप चंद जी के पास भेज दिया जाता कि पिलाए उसे अंडी का तेल और कुनैन का मिक्चर। क्योंकि रूप चंद जी हमारे ख़ानदानी डाक्टर ही नहीं अब्बा के पुराने दोस्त थे। डाक्टर साहब की दोस्ती अब्बा से, उनकी बेटियों की भाईयों से, बहुओं की हमारी भावजों से और नई पौद की नई पौद से आपस में दाँत काटी रोटी की थी। दोनों ख़ानदानों की मौजूदा तीन पीढ़ियाँ एक दूसरे से ऐसी घुली मिली थीं कि शुबहा भी न था कि हिन्दुस्तान की तक़सीम के बाद इस मुहब्बत में फूट पड़ जाएगी। हालाँकि दोनों ख़ानदानों में मुस्लिम लीगी, कांग्रेसी और महा-सभाई मौजूद थे और मज़हबी और सियासी बहसें भी जम-जम कर होतीं मगर ऐसे ही जैसे फूटबाल या क्रिकेट मैच होते हैं। इधर अब्बा कांग्रेसी थे तो उधर डाक्टर साहब और बड़े भाई लीगी थे, तो उधर ज्ञान चंद महा-सभाई, इधर मँझले भाई कम्युनिस्ट थे तो उधर गुलाब चंद सोशलिस्ट। और फिर उसी हिसाब से मर्दों की बीवियाँ और बच्चे भी उसी पार्टी के थे। आम तौर पर जब मुचैटा होता तो कांग्रेस का पल्ला भारी पड़ता। कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट भी गालियाँ खाते, मगर कांग्रेस में ही घुस पड़ते। रह जाते महा-सभाई और लीगी ये दोनों हमेशा साथ देते। गो वो एक दूसरे के दुश्मन होते। फिर भी दोनों मिलकर कांग्रेस पर हमला करते।

लेकिन इधर कुछ साल से मुस्लिम लीग का ज़ोर बढ़ता गया और उधर महासभा का। कांग्रेस का तो बिल्कुल पड़ा हो गया। बड़े भाई की सिपह-सालारी में घर की सारी नई पौद सिवाए दो एक ग़ैर जानिबदार क़िस्म के कांग्रेसियों को छोड़कर नेशनल गार्ड की तरह डट गई। उधर ज्ञान चंद की सरदारी में सेवक सिंह का छोटा सा दल डट गया। मगर दोस्ती और मुहब्बत में फ़ितूर न आया।

“अपने लल्लू की शादी तो मुन्नी ही से करूँगा,” महा-सभाई ज्ञान चंद मुन्नी के लीगी बाप से कहते, “सोने की पाज़ेब लाऊँगा।”

“यार मुलम्मा की न ठोक देना।” यानी बड़े भाई ज्ञान चंद की साहूकारी पर हमला करते हैं।

और इधर नेशनल गार्ड दीवारों पर 'पाकिस्तान ज़िंदाबाद' लिख देते और सेवा सिंह का दल उसे बिगाड़ कर 'अखंड हिंदुस्तान' लिख देता। ये उस वक़्त का ज़िक्र है जब पाकिस्तान का लेन-देन एक हंसने हंसाने का मशग़ला था।

अब्बा और रूप चंद जी ये सब कुछ सुनते और मुस्कुराते और सारे एशिया को एक बनाने के मंसूबे बाँधने लगते।

अम्माँ और चाची सियासत से दूर धनिये हल्दी और बेटीयों के जहेज़ों की बातें किया करतीं और बहूएँ एक दूसरे के फ़ैशन चुराने की ताक में लगी रहतीं। नमक-मिर्च के साथ-साथ डाक्टर साहब के यहाँ से दवाएँ भी मँगवाई जातीं रोज़। किसी को छींक आई और दौड़ा डाक्टर साहब के पास या जहाँ कोई बीमार हुआ और अम्माँ ने दाल भरी रोटी या दही बड़े बनवाने शुरू किए और डाक्टर साहब से कहलवा दिया कि खाना हो तो आ जाईए। अब डाक्टर साहब अपने पोतों का हाथ पकड़े आन पहुँचे।

चलते वक़्त बीवी कहतीं, “खाना न खाना, सुना!”

“हूँ, तो फिर फ़ीस कैसे वसूल करूँ। देखो जी लाला और चुन्नी को भेज देना।”

“हाय राम तुम्हें तो लाज भी नहीं आती।” चाची बड़बड़ातीं। मज़ा तो जब आता जब कभी अम्माँ की तबीय्यत ख़राब हो जाती। अम्माँ काँप जातीं।

“न भई मैं उस मसखरे से ईलाज नहीं कराऊँगी।” मगर फिर घर के डाक्टर को छोड़कर कौन शह्र से बुलाने जाता। लिहाज़ा सुनते ही डाक्टर साहब दौड़े आते।

“अकेली अकेली पुलाव ज़र्दे उड़ाओगी तो आप बीमार पड़ोगी।” वो जलाते।

“जैसे तुम खाओ हो वैसे ही औरों को समझते हो।” अम्माँ पर्दे के पीछे से भन्नातीं।

“अरे ये बीमारी का तो बहाना है। भाबी तुम वैसे ही कहलवा दिया करो। मैं आ जाया करूँगा। ये ढोंग काहे को रचाती हो।” वो आँखों में शरारत जमा कर के मुस्कुराते और अम्माँ जल कर हाथ खींच लेतीं और सलवातें सुनातीं। अब्बा मुस्कुरा कर रह जाते।

एक मरीज़ को देखने आते तो सारे घर के मर्ज़ उठ खड़े होते, कोई अपना पेट लिए चला आ रहा है तो किसी की फुंसी छिल गई। किसी का कान पक रहा है तो किसी की नाक सूजी हुई है।

“क्या मुसीबत है डिप्टी साहब! एक-आध को ज़हर दे दूँगा। क्या मुझे सलोतरी समझा है कि दुनिया भर के जानवर टूट पड़े।” वो मरीज़ों को देखते जाते और बड़बड़ाते जाते।

और जहाँ कोई नए बच्चे की आमद की इत्तिला हुई, वो जुमला सामान तख़लीक़ को गालियाँ देने लगते।

“हुँह, मुफ़्त का डाक्टर है। पैदा किए जाओ कम्बख़्त के सीने पर कोदों दलने के लिए।”

मगर जूं ही दर्द शुरू होता वो अपने बरामदे से हमारे बरामदे के चक्कर काटने लगते। चीख़ चिंघाड़ से सबको बौखला देते। महल्ले टोले वालियों का आना दुशवार, बनने वाले बाप के आते-जाते तड़ातड़ चपतें और जुर्रत-ए-अहमक़ाना पर फटकारें।

पर जूं ही बच्चे की पहली आवाज़ उनके कान में पहुँचती वो बरामदे से दरवाज़े पर और दरवाज़े से कमरे के अंदर आ जाते और उनके साथ-साथ अब्बा भी बावले हो कर आ जाते। औरतें कोसती पीटती पर्दे में हो जातीं, ज़च्चा की नब्ज़ देखकर वो उसकी पीठ ठोंकते, “वाह मेरी शेरनी!” और बच्चे का नाल काट कर नहलाना शुरू कर देते। वालिद साहब घबरा-घबरा कर फूहड़ नर्स का काम अंजाम देते फिर अम्माँ चिल्लाना शुरू कर देतीं, “लो ग़ज़ब ख़ुदा का। ये मरदुए हैं कि ज़च्चा ख़ाने में पिले पड़ते हैं।”

और मुआमले की नज़ाकत को महसूस कर के दोनों डाँट खाए हुए बच्चों की तरह भागते बाहर।

और फिर जब अब्बा के ऊपर फ़ालिज का हमला हुआ तो रूप चंद जी हॉस्पिटल से रिटायर्ड हो चुके थे और उनकी सारी प्रैक्टिस, उनके और हमारे घर तक महदूद रह गई थी। ईलाज तो और भी कई डाक्टर कर रहे थे मगर नर्स के और अम्माँ के साथ डाक्टर साहब ही जागते और जिस वक़्त से वो अब्बा को दफ़ना कर आए ख़ानदानी मुहब्बत के इलावा उन्हें ज़िम्मेदारी का भी एहसास हो गया। बच्चों की फ़ीस माफ़ कराने स्कूल दौड़े जाते। लड़कियों बालियों के जहेज़ के लिए ज्ञान चंद का नातिक़ा बंद रखते। घर का कोई ख़ास काम बग़ैर डाक्टर साहब की राय के न होता। पच्छिमी बाज़ू को तुड़वाकर जब दो कमरे बढ़ाने का सवाल उठा तो डाक्टर साहब ही की राय से दबा दिया गया।

“इस से तो ऊपर दो कमरे बढ़वा लो” उन्होंने राय दी। और उस पर अमल हुआ। मज्जन एफ़.ए. में साईंस लेने को तैयार न था। डाक्टर साहब जूता लेकर पिल पड़े, मुआमला तय हो गया। फ़रीदा मियाँ से लड़कर घर आन बैठी। डाक्टर साहब के पास उसका मियाँ पहुँचा और दूसरे दिन उसकी मंझली बहू शीला जब ब्याह कर आई तो दाई का झगड़ा भी ख़त्म हो गया। बेचारी हस्पताल से भागी आती। फ़ीस तो दूर की चीज़ है ऊपर से छटे दिन कुरता टोपी लेकर आती।

पर आज जब छब्बा लड़ कर आए तो उनकी ऐसी आओ-भगत हुई जैसे मर्द-ए-ग़ाज़ी मैदान मार कर आया है। सबने ही उसकी बहादुरी की तफ़सील पूछी और बहुत सी ज़बानों के आगे सिर्फ़ अम्माँ की ज़बान गुंग रही। आज से नहीं वो पंद्रह अगस्त से जब डाक्टर साहब के घर पर तिरंगा झंडा और अपने घर पर लीग का झंडा लगा था। उसी दिन से उनकी ज़बान को चुप लग गई थी। उन दो झंडों के दरमियान मीलों लंबी-चौड़ी ख़लीज हाइल हो गई। जिसकी भयानक गहराई को वो अपनी ग़मगीं आँखों से देख देखकर लरज़ा करतीं। फिर शरणार्थियों का ग़लबा हुआ। बड़ी बहू के मैके वाले बहावलपुर से माल लुटा कर और ब-मुशकिल जान बचा कर जब आए तो ख़लीज का दहाना चौड़ा हो गया। फिर रावलपिंडी से जब निर्मला के ससुराल वाले नीम मुर्दा हालत में आए तो उस ख़लीज में अज़दहे फुन्कारें मारने लगे। जब छोटी भाबी ने अपने बच्चे का पेट दिखाने को भेजा तो शीला भाबी ने जल्दी से नौकर को भगा दिया।

और किसी ने भी इस मुआमले पर बहस मुबाहिसा नहीं किया। सारे घर के मर्ज़ एक दम रुक गए। बड़ी भाबी तो अपने हिस्टीरिया के दौरे भूल कर लपा-झप अस्बाब बाँधने लगीं।

“मेरे ट्रंक को हाथ न लगाना,” अम्माँ की ज़बान आख़िर को खुली और सब हक्का बका रह गए।

“क्या आप नहीं जाएँगी।” बड़े भय्या तुर्शी से बोले।

“नौज मुई मैं सिंधनों में मरने जाऊँ। अल्लाह मारीयाँ। बर के पाजामे फड़ काती फिरें हैं।”

“तो संजले के पास ढाका चली जाईए।”

“ए वो ढाका काहे को जाएँगी। कहीं की मूँडी-काटे बंगाली तो चावल हाथों से लिसेड़-लिसेड़ के खावें हैं।” संझले की सास मुमानी बी ने ताना दिया।

“तो रावलपिंडी चलो फ़रीदा के यहाँ” ख़ाला बोलीं।

“तोबा मेरी, अल्लाह पाक पंजाबियों के हाथों किसी की मिट्टी पलीद न कराए। मिट गई दोज़ख़ियों की तो ज़बान बोले हैं” आज तो मेरी कम सुख़न अम्माँ पटा पट बोलें चलीं।

“ए बुआ, तुम्हारी तो वही मिसाल हो गई कि ऊँचे कि नीचे भैरीए के पेड़ तले, बेटी तेरा घर न जानो। ए बी, ये कट्टो गिलहरी की तरह ग़मज़ा मस्तियाँ कि बादशाह ने बुलाया। लो भई झम-झम करता... हाथी भेजा कि चक-चक ये तो काला-काला कि घोड़ा भेजा चक-चक ये तो लातें झाड़े कि...”

बावजूद कि फ़िज़ा मुकद्दर सी थी फिर भी क़हक़हा पड़ गया। मेरी अम्माँ का मुँह और फूल गया।

“क्या बच्चों की सी बातें हो रही हैं” नेशनल गार्ड के सरदार आला बोले, “जिनका सर न पैर। क्या इरादा है। यहाँ रहकर कट मरें?”

“तुम लोग जाओ, अब मैं कहाँ जाऊँगी। मेरा आख़िरी वक़्त।”

“तो आख़िरी वक़्त में काफ़िरों से गत बनवाओगी?” ख़ाला बी पोटलियाँ गिनती जाती हैं और पोटलियों में से सोने चांदी के ज़ेवर से लेकर हड्डियों का मंजन, सूखी मेथी और मुल्तानी मिट्टी तक थी। उन चीज़ों को वो ऐसे कलेजे से लगा कर ले जा रही थीं गोया पाकिस्तान का स्टर्लिंग बैलेंस कम हो जाएगा। तीन दफ़ा बड़े भाई ने जल कर उनकी पुराने रोहड़ की पोटलियाँ फेंकीं पर वो ऐसी चिंघाड़ीं गोया ये दौलत न गई तो पाकिस्तान ग़रीब रह जाएगा। और मजबूरन बच्चों के मूत में डूबी हुई गदेलों की रुई के पुलंदे बाँधने पड़े। बर्तन बोरों में भरे गए। पलंगों की पाए पटिया खोल कर झुलंगों में बाँधी गईं और देखते ही देखते जमा जमाया घर टेढ़ी-मेढ़ी गठरियों और बग़चों में तबदील हो गया।

तो सामान के पैर लग गए हैं और क़ुलांचें भरता फिरता है। ज़रा सुस्ताने को बैठा है और फिर उठकर नाचने लगेगा।

पर अम्माँ का ट्रंक जूँ का तूँ रखा रहा।

“आपका इरादा यहाँ मरने का है तो कौन रोक सकता है।” भाई साहब ने आख़िर में कहा।

और मेरी मासूम सूरत की भोली सी अम्माँ भटकती आँखों से गदले आसमान को तकती रहीं, जैसे वो ख़ुद अपने आपसे पूछती हों, “कौन मार डालेगा? और कब?”

“अम्माँ तो सठिया गई हैं। इस उम्र में अक़ल ठिकाने नहीं” मँझले भाई कान में खुसपुसाए।

“क्या मालूम उन्हें कि काफ़िरों ने मासूमों पर तो और ज़ुल्म ढाए हैं। अपना वतन होगा तो जान-ओ-माल का तो इत्मिनान रहेगा।”

अगर मेरी कम सुख़न अम्माँ की ज़बान तेज़ होती तो वो ज़रूर कहतीं, “अपना वतन है किस चिड़िया का नाम? लोगो! बताओ तो वो है कहाँ अपना वतन, जिस मिट्टी में जन्म लिया जिसमें लोट-पोट कर बढ़े पले, वही अपना वतन न हुआ तो फिर जहाँ चार दिन को जा कर बस जाओ वो कैसे अपना वतन हो जाएगा। और फिर कौन जाने वहाँ से भी कोई निकाल दे, कहे जाओ नया वतन बसाओ। अब यहाँ चराग़-ए-सहरी बनी बैठी हूँ, एक नन्हा सा झोंका आया और वतन का झगड़ा ख़त्म। और ये वतन उजाड़ने और बसाने का खेल कुछ दिलचस्प भी तो नहीं। एक दिन था मुग़ल अपना वतन छोड़कर नया वतन बसाने आए थे। आज फिर चलो वतन बसाने, वतन न हुआ पैर की जूती हो गई, ज़रा तंग पड़ी उतार फेंकी, दूसरी पहन ली।” मगर वो ख़ामोश रहीं और उनका चेहरा पहले से ज़्यादा थका हुआ मालूम होने लगा। जैसे वो सदियों से वतन की खोज में ख़ाक छानने के बाद थक कर आन बैठी हों और इस तलाश में ख़ुद को भी खो चुकी हों।

सर आए पैर गए। मगर अम्माँ अपनी जगह पर ऐसे जमी रहीं जैसे बड़ के पेड़ की जड़ आँधी तूफ़ान में खड़ी रहती है।

पर जब बेटे-बेटियाँ, बहुएँ-दामाद, पोते-पोतियाँ, नवासे-नवासियाँ पूरा का पूरा क़ाफ़िला बड़े फाटक से निकल कर पुलिस की निगरानी में लारियों में सवार होने लगा तो उनके कलेजे के टुकड़े उड़ने लगे। बेचैन नज़रों से उन्होंने ख़लीज के उस पार बेकसी से देखा। सड़क बीच का घर इतना दूर लगा जैसे दौर-ए-उफ़ुक़ पर कोई सरगर्दां बादल का लुक्का। रूप चंद जी का बरामदा सुनसान पड़ा था। दो एक-बार बच्चे बाहर निकले मगर हाथ पकड़ कर वापस घसीट लिये गये । पर अम्माँ की आँसू भरी आँखों ने उन आँखों को देख लिया जो दरवाज़ों की झुर्रियों और चक्कों के पीछे नमनाक हो रही थीं। जब लारियाँ धूल उड़ा कर क़ाफ़िले को ले सिधारीं तो एक बाएँ तरफ़ की मुर्दा हिस ने साँस ली, दरवाज़ा खुला और बोझल क़दमों से रूप चंद जी चोरों की तरह सामने के ख़ाली ढंढार घर को ताकते निकले और थोड़ी देर तक ग़ुबार के बगूले में बिछड़ी हुई सूरतों को ढूँढते रहे और फिर उनकी नाकाम निगाहें मुजरिमाना अंदाज़ में, उजड़े दैर में भटकती हुई वापस ज़मीन में धँस गईं।

जब सारी उम्र की पूँजी को ख़ुदा के रहम-ओ-करम के हवाले कर के अम्माँ धनढार सहन में आकर खड़ी हुईं तो उनका बूढ़ा दिल नन्हे बच्चे की तरह सहम कर कुम्हला गया जैसे चारों तरफ़ से भूत आन कर उन्हें दबोच लेंगे। चकरा कर उन्होंने खम्बे का सहारा लिया। सामने नज़र उठी तो कलेजा उछल कर मुँह को आया। यही तो वो कमरा था जिसे दूल्हा की प्यार भरी गोद में लॉंग कर आई थीं। यहीं तो कमसिन ख़ौफ़ज़दा आँखों वाली भोली सी दुल्हन के चाँद से चेहरे पर से घूँघट उठा। ज़िंदगी भर की गु़लामी लिख दी थी। वो सामने बाज़ू के कमरे में पहलौठी की बेटी पैदा हुई थी और बड़ी बेटी की याद एक दम से हूक बन कर कलेजे में कौंद गई, वो कोने में उसका नाल गड़ा था। एक नहीं दस नाल गड़े थे और दस रूहों ने यहीं पहली साँस ली थी। दस गोश्त-ओ-पोस्त की मूर्तियों ने, दस इन्सानों ने इसी मुक़द्दस कमरे में जन्म लिया था। इस मुक़द्दस कोख से जिसे आज वो छोड़कर चले गए थे। जैसे वो पुरानी केचुली थी जिसे काँटों में उलझा कर वो सब सटा सट निकले चले गए। अम्न और सुकून की तलाश में। रुपये के चार सेर गेहूँ के पीछे और वो नन्ही-नन्ही हस्तीयों की प्यारी आग़ूँ-आग़ूँ से कमरा अब तक गूँज रहा था। लपक कर वो कमरे में गोद फैला कर दौड़ गईं, फिर उनकी गोद ख़ाली थी वो गोद जिसे सुहागनें तक़द्दुस से छू कर हाथ कोख को लगाती थीं, आज ख़ाली थी। कमरा बड़ा भायं-भायं कर रहा था। दहशत-ज़दा हो कर वो लौट पड़ीं मगर छूटे हुए तख़य्युल के क़दम न लौटा सकीं। वो दूसरे कमरे में लड़खड़ा गए। यहीं तो ज़िंदगी के साथी ने पचास बरस के निबाह के बाद मुँह मोड़ा था। यहीं दरवाज़े के सामने कफ़्नाई हुई लाश रखी थी। सारा कुम्बा घेरे खड़ा था। ख़ुशनसीब थे वो जो अपने प्यारों की गोद में सिधारे पर ज़िंदगी की साथी को छोड़ गए जो आज बे कफ़्नाई हुई लाश की तरह लावारिस पड़ी रह गई। पैरों ने जवाब दे दिया और वहीं बैठ गईं जहाँ मय्यत के सिरहाने दस बरस इन कपकपाते हाथों ने चिराग़ जलाया था। पर आज चिराग़ में तेल न था और बत्ती भी ख़त्म हो चुकी थी।

और सामने रूप चंद अपने बरामदे में ज़ोर-ज़ोर से टहल रहे थे गालियाँ दे रहे थे। अपने बीवी-बच्चों को, नौकरों को। सरकार को और सामने फैली हुई बे-ज़बान सड़क को, ईंट-पत्थर को और चाक़ू-छुरी को। हत्ता कि पूरी कायनात उनकी गालियों की बमबारी के आगे सहमी दुबकी बैठी थी। और ख़ासतौर पर इस ख़ाली घर को जो सड़क के उस पार खड़ा उनका मुँह चिड़ा रहा था। जैसे ख़ुद उन्होंने अपने हाथों से इसकी ईंट से ईंट टकरा दी हो, वो कोई चीज़ अपने दिमाग़ में से झटक देना चाहते थे। सारी कुव्वतों की मदद से नोच कर फेंक देना चाहते थे मगर नाकामी से झुंजला उठते थे। कीना की जड़ों की तरह जो चीज़ उनके वजूद में जम चुकी थी वो उसे पूरी ताक़त से खींच रहे थे। मगर साथ साथ जैसे उनका गोश्त खींचता चला आता हो, वो कराह कर छोड़ देते थे। फिर एक दम उनकी गालियाँ बंद हो गईं, टहल थम गई और वो मोटर में बैठ कर चल दिए।

रात को जब गली के नुक्कड़ पर सन्नाटा छा गया तो पिछले दरवाज़े से रूपचंद की बीवी दो थालियाँ ऊपर नीचे धरे चोरों की तरह दाख़िल हुईं। दोनों बूढ़ी औरतें ख़ामोश एक दूसरे के आमने सामने बैठ गईं। ज़बानें बंद रहीं पर आँखें अब कुछ कह सुन रही थीं। दोनों थालियों का खाना जूँ का तूँ रखा था। औरतें जब किसी की ग़ीबत करती हैं तो उनकी ज़बानें कतरनी की तरह चल निकलती हैं। पर जहाँ जज़्बात ने हमला किया और मुँह में ताले पड़ गए।

रात भर न जाने कितनी देर परेशानियाँ अकेला पाकर शबख़ून मारती हैं। न जाने रास्ते ही में तो सब न ख़त्म हो जाऐंगे। आजकल तो इक्का-दुक्का नहीं पूरी-पूरी रेलें कट रही हैं। पचास बरस ख़ून से सींच कर खेती तैयार की और आज वो देस निकाला लेकर नई ज़मीन की तलाश में उफ़्ताँ-ओ-ख़ीज़ाँ चल पड़ी थी। कौन जाने नई ज़मीन उन पौदों को रास आए न आए। कुमला तो न जाऐंगे। ये ग़रीब-उल-वतन पौदे! छोटी बहू तो अल्लाह रखे अन गिना महीना है। न जाने किस जंगल में ज़च्चाख़ाना बने। घर-बार, नौकरी, व्योपार सब कुछ छोड़कर चल पड़े हैं। नए वतन में चील-कव्वों ने कुछ छोड़ा भी होगा। या ये मुँह तकते ही लौट आएँगे और जो लौट कर आएँगे और जो लौट कर आए तो फिर से जड़ें पकड़ने का भी मौक़ा मिलेगा या नहीं। कौन जाने ये बूढ़ा ठूँट बहार के लौट आने तक ज़िंदा भी रहेगा कि नहीं।

घंटों सड़न बावलियों की तरह दीवार पाखों से लिपट-लिपट कर न जाने क्या बकती रहीं फिर शल हो कर पड़ गईं। नींद कहाँ? सारी रात बूढ़ा जिस्म जवान बेटियों की कटी-फटी लाशें, नौ उम्र बहुओं के बरहना जुलूस और पोतों-नवासों के चीथड़े उड़ते देख देखकर थर्राता रहा। न जाने कब ग़फ़लत ने हमला कर दिया।

कि एक दम ऐसा मालूम हुआ कि दरवाज़े पर दुनिया भर का गदर ढय पड़ा है। जान प्यारी न सही पर बिना तेल का दिया भी बुझते वक़्त काँप तो उठता ही है और फिर सीधी-सादी मौत ही क्या बेरहम होती है जो ऊपर से वो इन्सान का भूत बन कर आए। सुना है बूढ़ियों तक को बाल पकड़ कर सड़कों पर घसीटते हैं। यहाँ तक कि खाल छिल कर हड्डियाँ झलक आती हैं और फिर वहीं दुनिया के वो अज़ाब नाज़िल होते हैं जिनके ख़्याल से दोज़ख़ के फ़रिश्ते भी ज़र्द पड़ जाएँ।

दस्तक की घन गरज बढ़ती जा रही थी। मलक-उल-मौत को जल्दी पड़ी थी न! और फिर आपसे आप सारी चटख़्नियाँ खुल गईं। बत्तियाँ जल उठीं जैसे दूर कुवें की तह से किसी की आवाज़ आई। शायद बड़ा लड़का पुकार रहा था... नहीं ये तो छोटे और संझले की आवाज़ थी। दूसरी दुनिया के मादूम से कोने से।

तो मिल गया सबको वतन? इतनी जल्दी? सँझला, उसके पीछे छोटा। साफ़ तो खड़े थे, गोदों में बच्चों को उठाए बहुएँ। फिर एक दम से सारा घर जी उठा... सारी रूहें जाग उठीं और दुखियारी माँ के गिर्द जमा हो गईं, छोटे बड़े हाथ प्यार से छूने लगे। एक दम से ख़ुश्क होंठ में नन्ही-नन्ही कोंपलें फूट निकलीं, वुफ़ूर-ए-मसर्रत से सारे हवास तितर-बितर हो कर तारीकी में भंवर डालते डूब गए।

जब आँख खुली तो नब्ज़ पर जानी-पहचानी उंगलियाँ रेंग रही थीं।

“अरे भाभी मुझे वैसे ही बुला लिया करो, चला आऊँगा। ये ढोंग काहे को रचाती हो।” रूप चंद जी पर्दे के पीछे से कह रहे थे।

“और भाबी आज तो फ़ीस दिलवा दो, देखो तुम्हारे नालायक़ लड़कों को लोनी जंक्शन से पकड़ कर लाया हूँ। भागे जाते थे बदमाश कहीं के। पुलिस सुपरिटेंडेंट का भी एतबार नहीं करते थे।”

फिर बूढ़े, होंट में कोंपलें फूट निकलीं। वो उठकर बैठ गईं। थोड़ी देर ख़ामोशी रही। फिर दो गर्म-गर्म मोती लुढ़क कर रूप चंद जी के झुर्रियोंदार हाथ पर गिर पड़े।


रचनाकार : इस्मत चुग़ताई
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