देशभक्ति / सुविचार / प्रेम / प्रेरक / माँ / स्त्री / जीवन

जब मैं बोलता हूँ (कविता) Editior's Choice

जब मैं बोलता हूँ
तो दरअसल बोलता कहाँ हूँ
अंदर ही अंदर ख़ौलता हूँ रह-रहकर
कहीं अपने को टटोलता हूँ
भीतर ही भीतर
उस भाषा में
जिसमें इस हत्यारी संस्कृति की समाई हो नहीं सकी

जब मैं बोलता हूँ...
तो दरअसल बोलता कहाँ हूँ—भीतर ही भीतर
कहीं अपने में घोलता हूँ
ज़हर में बुझा वह समय
जिसकी नाव पूँजी और बाज़ार के
चप्पुओं के गठजोड़ पर चल रही है

जब मैं बोलता हूँ
तो बोलता कहाँ हूँ—
तार-तार कर अपने को
बस अपने को
अपने में सोए हुए को
झँझोड़ता हूँ
जब-जब मैं बोलता हूँ!


            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें