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इतवार (कविता) Editior's Choice

हर इतवार यही लगता है
देरे से आँख खुली है मेरी,
या सूरज जल्दी निकला है
जागते ही मैं थोड़ी देर को हैराँ-सा रह जाता हूँ
बच्चों की आवाज़ें हैं न बस का शोर
गिरजे का घंटा क्यों इतनी देर से बजता जाता है
क्या आग लगी है?

चाय...?
चाय नहीं पूछी ‘आया’ ने?
उठते-उठते देखता हूँ जब,
आज अख़बार की रद्दी कुछ ज़्यादा है
और अख़बार के खोंचे में रक्खी ख़बरों से
गर्म धुआँ कुछ कम उठता है...
याद आता है...
अफ़्फ़ो! आज इतवार का दिन है। छुट्टी है!
ट्रेन में राज़ अख़बार के पढ़ने की कुछ ऐसी हुई है आदत
ठहरीं सतरें भी अख़बार की, हिल-हिल के पढ़नी पड़ती हैं!


रचनाकार : गुलज़ार
            

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