हम तिरी चाह में ऐ यार वहाँ तक पहुँचे,
होश ये भी न जहाँ है कि कहाँ तक पहुँचे।
इतना मालूम है ख़ामोश है सारी महफ़िल,
पर न मालूम ये ख़ामोशी कहाँ तक पहुँचे।
वो ज्ञानी न वो ध्यानी न बरहमन न वो शैख़,
वो कोई और थे जो तेरे मकाँ तक पहुँचे।
एक इस आस पे अब तक है मिरी बंद ज़बाँ,
कल को शायद मिरी आवाज़ वहाँ तक पहुँचे।
चाँद को छू के चले आए हैं विज्ञान के पँख,
देखना ये है कि इंसान कहाँ तक पहुँचे।
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