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हम क़बीलों से निकल के बेहया होते गए (ग़ज़ल) Editior's Choice

हम क़बीलों से निकल के बेहया होते गए,
क़ातिलों के हाथ दस्त-ए-मोजज़ा होते गए।

इंक़लाब आया जहाँ आया वहीं चौपट हुआ,
लोग झल्लाए हुए बे-आसरा होते गए।

जामिआ तालीम के कोठे पे बलखाने लगी,
वक़्त के सारे गुनी ख़्वाजा-सरा होते गए।

धीरे-धीरे फ़िक्र भी पर्चा-नवीसी हो गई,
ख़्वाब अपने बेहुनर बेक़ाफ़िया होते गए।

जब जवाँ होने लगे बच्चे नगाड़ा बज उठा,
कुछ तो कुरछेतर हुए कुछ कर्बला होते गए।

ढोल-सा बजता रहा है मारिफ़त के ख़ून में,
इब्तिदा होने न पाई इंतिहा होते गए।

मुरशिदी के नाम पे सारे हरामी एक थे,
रंग-ए-इरफ़ाँ के फ़रिश्ते बे-सदा होते गए।

हमको ये मालूम था ये किस वबा का क़ाैल है,
फिर भी सारे हमजहन्नुम हमख़ुदा होते गए।


            

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