निरवधि, उद्भवन धरातल पर,
हर सृजन कल्पना बन पलता।
हर काव्य स्वयं शृंगारित हो,
हृदयारित-पथ पर है चलता।
सिंचित हो करुणा-ममता में,
हो जाता पृष्ठों पर अंकित।
देता हर क्षण वह शीतलता,
अम्बर में जैसे शशांकित।
हर लेता उद्भित तमस-जाल,
देता सम्भवतः नव-प्रकाश।
स्वच्छंद-कल्पना में बँधकर,
देता विश्रंभी नवल-श्वास।
बन इंद्रधनुष के सप्त-वर्ण,
बनता नव-कल्पित विह्वलता।
निरवधि, उद्भवन धरातल पर,
हर सृजन कल्पना बन पलता।
अनुभूति, भाव कर आलोकित,
पद-चिन्हों का देता परिचय।
मृदु स्वेद कणों को चुन-चुन कर,
कर जाता अपना पथ निश्चय।
स्पन्दन, निस्पंदन, प्रतिध्वनि,
पथ के साथी, मधुशाला सा।
दिग्भ्रांत नहीं होता पथ से,
महादेवी, पन्त, निराला सा।
दिनकर-सा तेज़ लिए संग में,
चपला सी लेकर चंचलता।
निरवधि, उद्भवन धरातल पर,
हर सृजन कल्पना बन पलता।
क्रंदन से झरता दृग-पराग,
चातक की बनता स्वाति आस।
प्रण बनकर, प्राणाधार स्वयं,
प्रतिबिम्ब-बिम्ब बनता उजास।
ले स्वयं शून्यता शिखर-धार,
सौरभ, सुषमा ले स्वप्न-हार।
अस्तित्व स्वयं की ले निजता,
चिर-विह्नसित ले स्निग्ध-सार।
अंतस्थल से प्रण-स्थल तक,
चिर! सृजन तेरी है निर्मलता।
निरवधि, उद्भवन धरातल पर,
हर सृजन कल्पना बन पलता।
रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें