श्रवन दिवस भव, भगत सफल जग।
मंगल भवन कह, जनकवि नरहरि।।
पवन लहर चल, पुलकित तन मन।
हरि कवि प्रेम वस, विषधर चढ धरि।।
प्रिय तिय घुड़ सुन, विनय विलाप तज,
सुमति धरम सह, रघुवर हट करि।।
अरब अवध मन, शिव वर पद रच।
सुध बुध सब भुल, निरहत छबि हरि।।
कहत रघुचरित, सरल सरस कवि।
ख़ुद अवगुण कह, गत निरमल सरि।।
तमस हरत सब, सुरति मनुष पथ।
सगुण जपत नित, निपटत कहु अरि।।
दशरथ सुत मिल, तिलक घिसत जब।
नयन पवन सुत, अमित सुख जरि।।
जयति जयति जय, भगतन रघु कवि।
सरस सुरुचिकर, श्रवण मनन करि।।