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घर (कविता) Editior's Choice

मेरे पास किराए का एक कमरा है
या एक घर है
इन दोनों में कोई फ़र्क़ नहीं है

हर रात
इस एक कमरे वाले घर में
जब मेरे दोनों बच्चे खर्राटे भरने लगते हैं
एक अपराधी की तरह
मैं अपनी पत्नी के बिस्तर पर जाता हूँ

उन्मादक धुन पर
जब हमारी देह के अणु-अणु नाचने लगते हैं
हम उस वक़्त घबराए हुए सोचते हैं

वनैली फुसफुसाहट सुनकर
बच्चे कहीं डर न जाएँ
गला सूख जाने पर
अचानक कोई पानी न माँग ले
कोई चौंक कर आँखें न खोल दे
भयानक सपने से

अक्सर ऐसा नहीं होता है
लेकिन यह भय बना रहता है
कि हम कड़े पहरे में हैं
दो जोड़ी नन्हीं आँखें
हमें देख रही हैं


रचनाकार : विनोद दास
            

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