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गेहूँ (कविता) Editior's Choice

गेहूँ चाँस लगे
आँख के कितने पास
कि नत्थू घर में बैठे-बैठे
गिन लेता है
पीक
बालियाँ
दाने
क़ीमत
क़र्ज़ा
बचत।

और मेड़ पर नन्हे की अँगुली थामे चलता है
गेहूँ की चाँस के साथ-साथ
आगे जाता है
बेहद आगे
सोलह-सत्रह बरस आगे
नन्हे की शादी होती है
दुल्हन आती है
शक्कर-पूरी की पंगत में
मेले होते हैं
गाँव-बिरादरी के प्रेमी-जन
सब आते हैं
सब खाते हैं
ख़ूब बड़ा उत्सव होता है
वहीं मेड़ पर चलते-चलते।

सुई और तागा लेकर के
अब लछमी ने पिरो लिए हैं
मन ही मन गेहूँ के पौधे
बाँध लिए सारे शरीर में
आँख बंद करती है
सब चाँदी हो जाते हैं
सब सोना हो जाते हैं।

गेहूँ
नत्थू की नस में पकता है
रग-रग में गर्माता है
और पीक फोड़ता है लछमी की कोख में
गेहूँ
जैसे ही उगता है
खेत छोड़ देता है
जड़ें जमा लेता है लोगों के ख़याल में
और वहीं पलता है।

आसमान जितनी पानी की बूँदें देता है
धरती गिनती है
अंडों-सा उनको सेती है
और किसी समझौते-सा लौटा देती है।
जितनी बूँदें
उतने दाने।
नदियों में जितना पानी था
खलिहानों में उतना गेहूँ।

फिर भी भूखे गाँव
शहर के कोने भूखे
ख़ुद नत्थू भूखा
छह महीने तक भूखे घर के लोग।
गेहूँ
नत्थू का, नन्हे का, लछमी का
सगा गेहूँ
खलिहान से बाहर निकलते ही
काग़ज़ हो जाता है।
तेल, गुड़, नमक, मिर्च, कपड़ा, जूता
कितना कुछ नहीं होना पड़ता गेहूँ को
कोटवार, पटवारी, दरोग़ा, लेवी
कितने रूप रखता है गेहूँ।

बाक़ी का
जो नत्थू के घर जाना था
कहाँ गया है
जिससे उसे पेट भरना था
वह गेहूँ कहाँ भरा है
उसे पता है कि
सब जानते हैं
गेहूँ चाँस लगे
आँख के कितने पास
कि नत्थू घर में बैठे-बैठे
गिन लेता है
शादी-बियाह
तीज-त्यौहार
बहन-बेटी
एक टेम खाने
और
दोनों टेम भूखे रहने के दिन।


रचनाकार : शरद बिलाैरे
            

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