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गौमाता (कविता)

आज गोपाष्टमी है,
आज हम गौमाता की
पूजा, सेवा करते हैं,
शायद औपचारिकता निभाते हैं।
क्योंकि
हम गायों को माँ मानते हैं
उनकी पूजा करते हैं,
उनके अमृतरूपी दूध का पान करते हैं,
उनके मूत्र, गोबर का
बहुतेरा प्रयोग करते हैं,
पूजा पाठ में गौ के दूध का ही नहीं
गोबर का भी उपयोग करते हैं।
गौमाता में देवी देवताओं का
सदा वास होता है,
पशुधनों में गौमाता का
ख़ास स्थान होता है।
पर समय की गति देखिए
कि हम श्रद्धा तो ख़ूब दिखाते हैं
गाय को माता बताते है,
पर गौ पालन से कोसों दूर भागते हैं।
विचार कीजिए हम कहाँ जा रहे हैं
माँ भी कहते हैं और उपेक्षा भी करते हैं,
अहम और दिखावे में पड़कर
हम गौसेवा से दूर भागते हैं।
और तो और
इतने पाषाण हो गए हैं हम
कि गौवंश काटे जाते हैं
उनके माँस का भक्षण
जंगली जानवरों की तरह हो रहे हैं
हिंंदू, मुसलमान की बात छोड़िए
जाति धर्म के नाम पर गौमाता को
बलि का बकरा बनाते हैं।
ऐसा लगता है कि अब हम
इंसान कहलाने के लायक नहीं हैं।
माँ तो अपने बच्चों में भेद नहीं करती
फिर हिंंदू मुसलमान के चक्कर में
अपनी गौमाता को क्यों हैं पिसते?
अब भी समय है चेत जाएँ
गौमाता को अपमानित, उपेक्षित न करें
अपने सिरों पर पाप का बोझ
अब और न ही धरें,
गौमाता को सिर्फ़ दुधारू
पशु समझने की भूल न करें,
उनकी महत्ता, गरिमा को महसूस करें,
अब और न घमंड करें।
वरना बहुत पछताएँगे
गौमाता की आह नहीं झेल पाएँगे,
तब बस हाथ मलते रह जाएँगे,
सिर्फ़ आँसू बहाएँगे, पछताएँगे
मगर कुछ कर नहीं पाएँगे
गौमाता! गौमाता! की बस
करुण पुकार लगाएँगे।


लेखन तिथि : 11 नवम्बर, 2021
            

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