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एकांतिका (कविता) Editior's Choice

जाने ऐसा है
कि मेरे वहम के वहम को
ऐसा लगता है
तुम शब्दों में छिपाते हो प्रेम
जैसे कोई जंगल में छिपा आए
बालों में आ टँकी पतझरी सुर्ख सुनहरी पत्ती
यूँ तो बहुत
निरापद है तुम्हारा साथ
लेकिन मेरा मन धड़कता है
कभी किसी छोटी-सी निरापद आपदा के लिए
माना बहुत कोरी है स्लेट
लेकिन बच्चों के से अनभ्यस्त हाथों से
मन करता है
एक कमल, एक बिल्ली, एक बतख
तो बना ही दूँ एक कोने में
ताकि तुम चाहो तो
एक गीले स्पंज से तुरंत मिटा सको
गरिमा के तट पर आ बैठी है उम्र
जो कहती है छाया मत छूना मन
बहाव के बीच की होती तो
कहती—कह देने से आसान हो जाती हैं चीज़ें
अब क्या!
अब सब कुछ स्थगित है
अगली किसी मदिरा के मीठे ताप में
एकांतिका रचती किसी दूसरी शाम तक
जब कविता के फड़फड़ाते पन्ने-से मन पर
एक बार फिर
उम्र, विवेक, गरिमा अपना पेपरवेट रख जाएँगे
या कि उस पेपरवेट से
निकल भागेंगे पन्ने?
बिखर जाएँगे दिगांतों तक।


            

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