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एक मित्र से (कविता) Editior's Choice

वस्तुतः हम मित्र हैं
और कुछ होना असंभव
क्योंकि हम इस सृष्टि की उद्भावना के
नित अधूरे ज्वाल में लिपटे
मिलन की माँग करते
दो दिशाओं में लटकते चित्र हैं।
हट गया पर्दा न जाने कौन पल में :
एक मणि जो मृदु किरण के बंधनों में
बाँध कर हम को कहीं दुबकी पड़ी थी
हो गई प्रत्यक्ष।
और उसकी प्राप्ति भी अब हो गई है लक्ष्य
जो कभी हम को मिला दे।
मैं इसी आलोक में से
दूर के गिरि-गह्वरों में घूम कर जाती हुई दुर्गम
डगर पर देखता हूँ।
सोचता हूँ तुम इसी आलोक की उज्ज्वल लकीरों के
सहारे यदि चली आओ
मिलें हम फिर; चलें आगे जिधर जाना हमें।
यह हमारा लक्ष्य मणि विधुकांत है
जो वयस की चंद्र-किरणों में पिघलता।
झर रहा अमृत कि जिसमें हम नहा कर
आज कर लें कल्प मन का।
आज अमृत की नई मंदाकिनी आकर
हमारे द्वार पर—
तुमसे मुझे, मुझसे तुम्हें आबद्ध करती।
हम नहा लें आज इसमें
आज घर आया हमारे यह नया पावित्र्य है।
मित्र, हम-तुम मित्र हैं।
विश्व के आदर्श की छोटी भुजाएँ।
यह हमारे स्वप्न का ब्रह्मांड इसमें।
किस तरह सिकुड़े-समाए?
इस लिए आओ बदल लें राह अपनी
चल नई पगडंडियों पर
हम नया आदर्श पाएँ।
यह हमारा पथ छिदा है कंटकों से
झर चुकी निर्गंध सूखी पंखुड़ियाँ बनफूल की।

दूसरे पथ पर पड़ी हैं हड्डियाँ
फैला हुआ भोले जनों का रक्त
द्रौपदी-सी चीख़ती हैं नारियाँ निर्वस्त्र
जिनके चीर दुःशासन कहीं पर
फेंक आया खींच कर।
मूक शिशुओं के अधर की प्राणदा पय-धार
नभ का चाँद बन कर हो गई है दूर।
देखती जिनको सरल मृदु स्वच्छ आँखें
उँगलियाँ मुड़तीं पकड़ने
उस गगन के चाँद को।
ले रहा करवट नई हर बार जीवन
किंतु तीखा तीर जो उस के हृदय में आ लगा है
और पीड़ा में नहीं कुछ भान
कौन-सा है मोड़ पथ में कुछ न इसका ध्यान
हम इसी पथ पर चलें
संसार का दुःख दर्द धो दें।
इस हमारी मित्रता के दीप को, एक अभिनय ज्योति
किरनों से सँजो दें।
सोचता हूँ तुम सजीवन
चेतनामय प्राण से सींची हुई
नव रम्यता के पल्लवों के भार से झुकती हुई
नववल्लरी हो।
और जिसके स्वप्न के सुंदर सुमन खिल कर निकटतर
झुक रहे मेरे अधर के।
जिनकी रम्यता मुस्कान बन बिखरी हुई है।
यह पुरानी बात है
युग-युग पुरानी।
किंतु आओ, इस पुरानी बात से हम भी नया
आदर्श पाएँ।
क्योंकि इसमें सब नए मन को मिला तब रूप
सबको यह दिखी बन कर नई अपनी कहानी।
पास आओ, हम इसी से
आज अपना अर्थ पाएँ।
तोड़ कर सब आड़
हम तुम पास आएँ
क्योंकि हम तो मित्र हैं।
मित्र, आओ, अब नया आलोक दें इस दीप को।
यह हमारा आत्मज नैकट्य का सुख
साथ हमको देखने का हठ लिए है,
साथ चल कर हम इसी की चाह पूरी आज कर दें।
जन समुंदर के किनारे की समय की बालुओं पर
हम युगल पद-चिह्न अपने भी बना दें।
और हम तुम एक होकर
कोटि जन की सिंधु-लहरों में मिला दें
आप अपनापन।
हम खड़े होकर बुभुक्षित फ़ौज में
निज मोरचे पर
सामने के शत्रु दुर्गों के—
क्योंकि पहले तोड़ना है दुर्ग
जिसकी गोद में बंदी हमारी चाहना है।


            

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