एक फ़ितरत सी हो गई है,
चुप्प रहना।
कितने मकानों की कथा,
चिल्लाती ऑंखों की व्यथा।
बस फँस गई है,
भूल गया कहना।
खारी बूँदों से भरी,
पत्तियाँ मुरझाईं,
पर दिखती हरी।
ठिठक फूल की,
मुस्कान काँटों की,
व्यक्त नहीं,
चुभन सहना।
छूट गई हल की बात,
विस्मृत,
आकाश की ओर फैले हाथ।
याद रहे अपने दुख,
अपने सुख।
देख ना पाया,
धूप में जलते तन का संताप,
ऑंखों की सुध नहीं,
दिखा बस नदी का बहना।
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