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एक और बसंत (कविता) Editior's Choice

बंधु, तुम आ गए?
सद्यस्नात, रंगारंग, खिले हुए
सब कुछ समझती हुई आँखों में वही प्रश्न!
ओ परिचित क्या कहूँ?

मैंने यदि तुम्हें कभी
खुले हुए मन से पुकारा हो
तो तुम फिर आना बंधु :
आना फिर इसी तरह
स्नेह भरे उजले कुतूहल से देखना
भीतर तक पैठती निगाहों से आर पार!
शायद वह कातर निवेदन न दे सकूँ
किंतु उस क्षण भर में
पिघल-पिघल मन में सलोना बन जाऊँगा :

देखना कि मुँदी हुई पलकों में, काँपती बरुनियों में
अनायास होंठों में
वीणा-सी बजती भुजाओं में
आत्मा में, अंगों में, मन में, रोम-रोम में,
अब भी वही हूँ मैं—
फ़र्क़ बस इतना है
अंतर को मथ कर उमड़ते हुए
शब्दों से डरता हूँ :
शब्द अभिचारी हैं
कुछ दिन चमकने पर ओछे पड़ जाते हैं।

बावले बसंत तुम आए कोंपलों के साथ
वही धूल, वही हवा, वही किलकारियाँ!
मैंने यदि यह सब कृतार्थ हो
खुले हुए कक्ष के झरोखों से
गुज़र जाने दिया हो
तो तुम फिर आना,
फिर आना, फिर आना तुम!


            

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