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दोपहरी (कविता) Editior's Choice

गर्मी की दोपहरी में
तपे हुए नभ के नीचे
काली सड़कें तारकोल की
अंगारे-सी जली पड़ी थीं
छाँह जली थी पेड़ों की भी
पत्ते झुलस गए थे
नंगे-नंगे दीर्घकाय, कंकालों-से वृक्ष खड़े थे।
हों अकाल के ज्यों अवतार।

एक अकेला ताँगा था दूरी पर
कोचवान की काली-सी चाबुक के बल पर
वो बढ़ता था।
घूम-घूम जो बलखाती थी सर्प सरीखी
बेदर्दी से पड़ती थी दुबले घोड़े की गर्म
पीठ पर।
भाग रहा वह तारकोल की जली
अँगीठी के ऊपर से।

कभी एक ग्रामीण धरे कंधे पर लाठी
सुख-दुःख की मोटी-सी गठरी
लिए पीठ पर
भारी जूते फटे हुए।
जिन में से थी झाँक रही गाँवों की आत्मा
ज़िंदा रहने के कठिन जतन में
पाँव बढ़ाए आगे जाता।

घर की खपरैलों के नीचे
चिड़िएँ भी दो-चार चोंच खोल
उड़ती छिपती थीं
खुले हुए आँगन में फैली
कड़ी धूप से।

बड़े घरों के श्वान पालतू
बाथरूम में पानी की हल्की ठंडक में
नैन मूँद कर लेट गए थे।

कोई बाहर नहीं निकलता
साँझ समय तक
थप्पड़ खाने गर्म हवा के
संध्या की भी चहल-पहल ओढ़े थी
गहरे सूने रंग की चादर
गर्मी के मौसम में।


रचनाकार : शकुन्त माथुर
            

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