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दोपहर (कविता) Editior's Choice

जून की दोपहर
बैलगाड़ी पर चढ़कर आ रही है
चीज़ों को तपाती हुई
ख़ून को ललकारती हई

एक औरत उठती है
और गेहूँ के स्वच्छ और भीगे दानों को
फैला देती है घर की छत पर

दाने की खाल हो रही है सख़्त
और उसकी चमक
एक आदमी की भूख को पार कर रही है

बहरहाल यह दोपहर है
तपती ज़मीन पर नंगे पैर चल रहे हैं
डाकिया साइकिल की घंटी बजाता
चिट्ठियाँ बाँट रहा है
बोझ सिर पर लादे एक औरत
ललाट से पसीना पोंछ रही है
धूल भरी हवा हमारे फेफड़ों में
अपना घर बना रही है
दोपहर सेंध लगाकर
अब पहुँच रही है वहाँ
दुनिया से बेख़बर जहाँ
एक आदमी ऊँघ रहा है

वह उसकी ऊँघ नष्ट करना चाहती है
संसार की तमाम लिजलिजी वस्तुओं के ख़िलाफ़
विचारों को धीरे-धीरे पकाते हुए
वह दुनिया को बनाना चाहती है
अपनी ही तरह पारदर्शी
गरम और चमकीली

दोपहर उतर रही है
हमारे पसीने से माँगती हुई
पूरे दिन का हिसाब


रचनाकार : विनोद दास
            

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