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दिवा-स्वप्न (कविता) Editior's Choice

वर्षा से धुल कर निखर उठा नीला-नीला
फिर हरे-हरे खेतों पर छाया आसमान,
उजली कुँआर की धूप अकेली पड़ी हार में,
लौटे इस बेला सब अपने घर किसान।
पागुर करती छाहीं में, कुछ गंभीर अध-खुली आँखों से,
बैठी गाएँ करतीं विचार,
सूनेपन का मधु-गीत आम की डाली में,
गाती जातीं मिल कर ममाखियाँ लगातार।
भरे रहे मकाई ज्वार बाजरे के दाने,
चुगती चिड़ियाँ पेड़ों पर बैठीं झूल-झूल,
पीले कनेर के फूल सुनहले फूले पीले,
लाल-लाल झाड़ी कनेर की, लाल फूल।
बिकसी फूटें, पकती कचेलियाँ बेलों में,
ढो ले आती ठंडी बयार सोंधी सुगंध,
अंतस्तल में फिर पेठ खोलती मनोभवन के,
वर्ष-वर्ष से सुधि के भूले द्वार बंद।
तब वर्षों के उस पार दीखता, खेल रहा वह,
खेल-खेल में मिटा चुका है जिसे काल,
बीते वर्षों का मैं, जिसको है ढँके हुए
गाढ़े वर्षों की छायाओं का तंतु-जाल।
देखती उसे तब अपलक आँखें, रह जातीं
देखती उसे ही आँखें धर एकांत ध्यान,
भूल अतीत का स्वप्न जागता, मिट जाता
संकुचित एक पल-सा हो फीका वर्तमान।
देखतीं उसे ही, भर आतीं आँखें, फिर पलकें
झँप जातीं, खो जाती छवि वह निराकार,
मैं रह जाता फिर प्रतिदिन-सा ही
गरजता अनागत का अगाध फिर अंधकार।


            

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