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दीनदयाल दया करिए (कविता) Editior's Choice

निज हाथन सर्वसु खोय चुके कहँ लौ दुख पै दुख ही भरिए।
हम आरत भारतवासिन पै अब दीनदयाल दया करिए॥
लरि भाइन-भाइन आपस में बल बीरज वैभव नाश कियो।
सब के उर आलस अप्रियता अघ आदिक बैरिन बास कियो॥

हमरे धन सों हमरे तन सों परदेशिन भोग बिलास कियो।
करता धरता सब आप बने अति तुच्छ हमै निज दास कियो॥
इन स्वारथ मीत विधर्मिन के पद पूजत हा! कब लौं मरिए।
हम आरत...॥1॥

कोउ मूरख हिंदुन को ढिग कै निज निंदित शिष्य बनावत है।
बहकाय कुटुंब छुड़ाय छली फिर नेक नहीं अपनावत है॥
कोउ स्यामल रंगहि सों घिनकै जिय लेत बिलंब न लावत है।
यह दुर्गति देखि ह हा! हमरी अँखियान लहू भरि आवत है॥
न पुकार सुनै कोउ भूपति है किमि धीरज हाय हिये धरिए।
हम आरत...॥2॥

विधवा बिलपैं नित धेनु कटें कोउ लागत हाय गुहार नहीं।
पट भूषण बेचि भरै कर को तबहूँ लखिये बयपार नहीं॥
महँगी दुरभिक्ष कुरोगन ते भरि पेट जुहात अहार नहीं।
निजता इकता बलबुद्धि नहीं तिहि ऊपर हाथ हथ्यार नहीं॥
सबही बिधि दीन मलीन महा निशिबासर चित्त चिता जरिए।
हम आरत...॥3॥

हमरे अघ औगुन जो गनि हौ गनती नहिं लाख करोरन की।
जहँ प्रेम नहीं तहँ कौन कथा अपलच्छन और अभद्रन की॥
दुख देखि द्रवौ इक आश इती असहायन की असमर्थन की।
प्रभु की करुणाहु अनंत अहै जु कुकृत्ति घनो हम तुच्छन की॥
यह जानि प्रताप नरायन के उर अंतर ते न कहूँ टरिये।
हम आरत भारत बासिन पै अब दीनदयाल दया करिए॥4॥


            

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