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चाय (कविता) Editior's Choice

वह कई मगों वाली चाय का दिन था
ज़ाहिर है
बुरी तरह भीग गया था
किले से उतर कर आया
बरसात का पानी भी चाय के रंग का था
मानो सलेटी के टली से छलक गई हो
पूरी भरी चाय

सलेटीपन की बहुतायत से
मैं उदास होने ही जा रही थी
कि चाय का ख़याल आया
सब कुछ ठीक हो गया
किसी सामूहिक हमाम-सा गुनगुना
नग्नता का भूरा रंग
मेरी रग-रग में उतर गया

चाय की तरह तो
एक लड़की कितनी तुर्श और कड़क हो सकती है
यह तुम जान ही नहीं सकते
जब तक तुम उसे ठीक से खौला न लो

मुझे सफ़ेद कपड़ों का शौक़ है
साथ ही चाय का भी
तुम्हें अक्सर मुझे चौंकाने का शौक़ है
मुझे घबरा कर छलका देने का
चाय एक भूरी तरल चेतना है
जो अक्सर बेख़याली में छलक जाती है
नए सफ़ेद दिनों पर।


            

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